सरकार (लघुकथा)  

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सरकार (लघुकथा)

-गंगा सहाय मीणा

मैं 14-15 साल का हो गया था लेकिन मैंने कभी सरकार को नहीं देखा. मैं किताबों-अखबारों में पढकर और लोगों से सुन-सुनकर तंग आ गया था कि सरकार ये कर रही है, वो कर रही है, सरकार ने ये कहा, वो कहा. आखिर सरकार है कौन, कैसी दिखती है? बोतल से निकले जिन/भूत की तरह तो नहीं? ये सवाल मुझे उन दिनों बहुत परेशान करता था.

अंततः एक दिन मेरा भाग्य जागा और मुझे सरकार के दर्शन हो गए. मैं अपने पिताजी के साथ पास के शहर गया, वहां मुझे सरकार एक तिराहे पर खडी दिखी. सरकार एक जीप की शक्ल में थी, जिसमें 3-4 पुलिसवाले थे. जीप पर सरकार का नाम लिखा हुआ था- राजस्थान सरकार. सरकार को जीप के रूप में देखकर पहले तो आश्‍चर्य हुआ लेकिन बाद में सोच लिया कि लोग कहते हैं कि सरकार सर्वशक्तिशाली है, इसलिए बहुरूपिया भी होगी. अपनी आवश्यतकतानुसार रूप बदल लेती होगी.
सरकार तिराहे पर जीप की शक्ल में आकर रुकी. उसे देखते ही आसपास के माहौल में सक्रियता आ गई. पुलिस वाले भी जीप में से उतर कर सक्रिय हो गए. वहां खडे ऑटो रिक्शों की हवा निकालने लगे और रिक्शा चालकों को गाली और थप्पड मारने लगे. रिक्शेवाले हवारहित ट्यूब वाले रिक्शों को भी लेकर भी दौड पडे.
सरकार को मैंने पहली बार देखा था. सारी घटना का कुछ कार्य-कारण समझ में नहीं आया. लेकिन उसे देखकर मुझे भी डर लगने लगा


-जितेन्द्र कुमार यादव

राहुल जी आजमगढ़ के रहने वाले थे। भोजपुरी उनकी मातृभाषा थी और अपने जीवन के सबसे ऊर्जावान समय को उन्होंने भोजपुरी समाज की दशा और दिशा सुधारने के लिए लगाया। जन-आन्दोलनों से राहुल जी का लम्बे समय तक वास्ता रहा है। इसलिए यह जरूरी जान पडता है कि यह आन्दोलनधर्मी व्यक्तित्व अपनी मातृभाषा के बारे में क्या सोचता था और आज के समय में उसकी प्रासंगिकता क्या है?
सबसे पहली बात कि राहुल जी भोजपुरी को हिन्दी की बोली नहीं मानते थे। वे उत्तर भारत की सभी बोलियों के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकारते थे। 'हिन्दी लोक-साहित्य' नामक निबंध में राहुल जी ने लिखा- ''हमारे अहिन्दी भाषी भाई समझते हैं कि उत्तर में एक ही हिन्दी भाषा है, बाकी उसी की छोटी-छोटी बोलियाँ हैं। पर मैथिली, अवधी, ब्रजी और मारवाड़ी को कौन बोली कह सकता है, जिनका काव्य साहित्य हमारी हिन्दी से कहीं अधिक पुराना और गुण तथा परिमाण में अधिक नहीं तो कम समृद्ध नहीं है। वस्तुतः वह बोलियाँ नहीं, साहित्यिक भाषाएं हैं।'' साथ ही उन्होंने यह भी लिखा कि - ''किसी भाषा को केवल इसीलिए बोली नहीं कहा जा सकता कि उसका साहित्य लिपिबद्ध नहीं हुआ।''
बावजूद उसके आज भी इन भाषाओं (भोजपुरी, अवधी, ब्रजी आदि) के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जाता। हमें शुरू से ही रटाया जाता है कि हिन्दी ही एक भाषा है और भोजपुरी, अवधी, ब्रजी आदि 16 उसकी बोलियाँ हैं। रामविलास शर्मा की जातीयता की अवधारणा का उद्धरण देकर बताया जाता है कि हिन्दी जातीय भाषा है। यह जातीयता क्या चीज है और यह इस हिन्दी प्रदेश में कैसे लागू होती है, यह बताने की जरूरत न रामविलास जी ने समझी, न उनके अनुयाइयों ने। अगर गौर से देखें तो यह 'जातीय' शब्द बहुत भ्रामक है। इस शब्द से ऐसा आभास होता है कि हिन्दी सम्प्रेषण की भाषा के साथ-साथ संस्कृति की भी भाषा है। लेकिन वास्तविकता यह है कि हिन्दी मात्र सम्प्रेषण की भाषा है। संस्कृति की वास्तविक वाहक हमारी मातृभाषाएं है, जिन्हें बोली का नाम देकर हमेशा दोयम दर्जे पर रखा गया। जिस भाषा में मैं बोल रहा हूँ, वह पढ़े-लिखे मध्यवर्ग और महानगरों की भाषा है। 'जरूरत' की भाषा को संस्कृति की भाषा बताकर एक भ्रामक प्रचार किया गया। 'जातीय भाषा' और 'जातीय संस्कृति' को हवाई कल्पना कर जमीनी हकीकत को भुला दिया गया। राहुल जी मातृभाषाओं और संस्कृतियों के सम्बंध को समझते थे। 1947 में अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन (बम्बई) के मंच से बोलते हुए राहुल जी ने कहा - ''इन भाषाओं (मातृभाषाएं) के साथ भाषा क्षेत्रों की संस्कृति का भी घनिष्ठ संबंध है। वैसे सारे भारतवर्ष की एक संस्कृति है, लेकिन प्रांतों के अनुसार उसमें अवांतर भेद भी है। वैसे ही हमारे हिन्दी के मातृभाषा क्षेत्र में भी संस्कृतियों के कुछ अवांतर भेद हैं। जन-कविता कला, लोकोक्ति आदि के रूप में बहुत भारी निधि इन मातृभाषाओं के भीतर सुरक्षित है, जिसकी भी रक्षा हमें करनी चाहिए और उसके लिए हमें उन्हें उनका उचित स्थान प्रदान करना चाहिए।''
राहुल जी का मानना था कि जिस व्यवस्था में शासन की भाषा और जनता की भाषा में भेद होगा, उस देश में वास्तविक लोकतंत्र कभी आ ही नहीं सकता। राहुल जी भाषाई आधार पर राज्यों के बँटबारे के पक्षधर थे। उनका मत था कि सभी राज्य अपनी-अपनी मातृभाषाओं में प्राथमिक शिक्षा दें और राज्यों का समूचा काम-काज भी उसी भाषा में हो। पूरे मुल्क को कुछ ही वर्षों में शिक्षित करने की योजना थी उनकी। केवल बच्चे ही नहीं वयस्क शिक्षा के बारे में भी राहुल ने उसी समय सोचा था। उनका ही विचार था कि मातृभाषाओं के अलावा अगर हम किसी भी दूसरी भाषा में शिक्षा देते हैं तो पचासों वर्ष के बाद भी हमारी बहुत बडी आबादी निरक्षर और मूढ़ बनी रहेगी। 1947 में दूसरे अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन (गोपालगंज) के मंच से बोलते हुए राहुल जी ने कहा - ''ई लोग के राज तबे नीमन चली, जब लोग हुसियार होई। राजनीति के बात दू चार गो पढुआ जाने, अब ए से काम ना चली। जवना से लोग आपन नफा-नोकसान समझे आ उ बूझे कि दुनिया जहान में का हो रहल बा तवन उपाय करे के पड़ी। एकर मतलब ई बा कि अब लोगवा के मूढ़ रहला से काम ना चली। लोग कइसे सग्यान होई, एकर एके गो उपाय हवे कि सब लोग पढ़े-लिखे जाने। खासी लइके ना, बूढ़ों जवान के अंगुठा के निसान के बान छोड़ावे के परी। अंगरेज के राम रहल त ओकनी के फायदा एही में रहल कि समूचा हिन्दुस्तान के लोग मूढ़ बनल रहे। चोर के अजोरिया रात न लुभावे भावे। लेकिन अपना देश में केहू बेपढ़ल ना रहे। एकर कौन रहता बा। केहू भाई कही कि सबकरा के हिन्दी पढ़ावल जाव। बाकी ई बारह बरिस के रहता ह। जो हिन्दी में सिखावै -पढ़ावै के होई त पचासो बरिस में हमनी के सब लइका परानी पढ़ुआ ना बनब। आएवे हमनी के दसे-पनरह बरिस में समूचा मुलुक के पढा देवे के ह। कइसे होई ई कुलि। ... अपना भाखा में पढ़ल-लिखत कवनो मुसकिल नइखे। खाली ककहरे नू सोखे के परी।'' मातृभाषाओं में शिक्षा न देने का ही यह नतीजा है कि हमारे देश की बहुत बड़ी आबादी अज्ञानता में जीवन जीने के लिए अभिशप्ते है। सवाल यह है कि हम कितने लोगों को अंग्रेजी और हिन्दी सिखा सकते हैं।
राहुल जी के विचार लोक और शिष्ट साहित्य की दूरी को मिटाते हैं। साहित्य और संस्कृति पर एक खास वर्ग के एकाधिकार के विरोधी थे, राहुल जी। 'नईकी दुनिया' (नाटक) की जगरानी भी लेखकों की जमात में शामिल है. 'सारन समाचार' में उसकी लिखी कथा के साथ-साथ उसका फोटो भी प्रकाशित होता है। बटुक पूछता है - ''बोलु इयवा! पुरनकी दुनिया में लिखाड़िन में तोर नाम होइत?'' जगरानी कहती है- ''लिखाड़ी! जिनगी भर रमायन पढ़त रहि गइनी, अच्छर लिखहू ना सिखले रहनी। इ त नइकी दुनिया में जब अपनी बोली के केताब आ अखबार छपे लागल, तब नु हमरौ चाटक खुलल हा?'' वास्तव में भाषा के बैरियर के कारण हम बहुत सारी संवेदनाओं से अनभिज्ञ रह जाते हैं। अगर इन लोक भाषाओं और लोक साहित्य को समुचित सम्मान मिले तो साहित्य में एक भाषाई वर्ग का एकाधिकार टूटेगा। जीवन संग्राम में जूझ रहे किसान-मजदूर जब स्वयं अपना साहित्य लिखेंगे, तो वह दूसरे प्रकार का होगा।
हमारी भाषा नीति के कारण अभी भी इस देश की बहुत बड़ी आबादी दोयम दर्जे की नागरिक बनी हुई है। उसे समझ में ही नहीं आ रहा है कि वह क्या करें। समूचे ज्ञान-विज्ञान पर अंग्रेजीदां वर्ग का कब्जा है। हमारे देश का समूचा शोध और उच्च अध्ययन अंग्रेजी में हो रहा है जो गिने-चुने लोगों के हाथ में है और उन्हीं के लिए है। बम्बई वाले भाषण में राहुल जी ने कहा - (कुछ लोग) ''अब भी अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा बनाये रखने का आग्रह करते हैं। यह भी दासता के अभिशाप का अवशेष है।'' हिन्दी को सम्पर्क भाषा के रूप में राहुल जी देखते थे। उसी अधिवेशन ने उन्होंने कहा - ''अपने क्षेत्र में वहाँ की भाषा ही सर्वे-सर्वा होगी। हिन्दी का काम तो वहाँ ही पडेगा, जहाँ एक प्रांत का दूसरे प्रान्त से सम्बंध होगा।''
राहुल जी ने इन सभी बातों को अपने व्यवहार में भी अपनाया। अपने छपरा प्रवास के राजनीतिक जीवन के बारे में बताते हुए राहुल जी ने लिखा - ''मुझे याद नहीं कि अपने राजनीतिक जीवन के समय छपरा में मैंने कभी भोजपुरी छोड़कर हिन्दी में भाषण दिया हो।''
दरभंगा में कौंसिल चुनाव प्रचार का जिक्र करते हुए 'मेरी जीवन यात्रा' में राहुल जी ने लिखा है कि ''मैंने छपरा की बोली में भाषण शुरू किया, दो ही मिनट में किसानों के सिर हिलने लगे, फिर तो सभापति ने उज्र पेश कर हिन्दी में भाषण देने के लिए जोर दिया, कि लोग छपरा की बोली नहीं समझते। मैंने जनता से पूछा- यदि आप लोग मेरी भाषा नहीं समझते तो क्या करूँगा, उर्दू-फारसी में बोलने की कोशिश करूँगा। जनता ने एक स्वर में कहा - नहीं, हम आपकी भाषा खूब समझते हैं। जिसमें हम समझ न पावें, इसके लिए यह चालाकी चली जा रही है।''
मातृभाषाओं के आग्रही राहुल को ऐसा नहीं था कि दूसरी भाषाएं नहीं आती थीं। वे दुनिया की बहुत सारी भाषाओं को जानते थे। जहाँ गये, वही की भाषा को अपना बना लिया। कहा जाता है कि उन्हें लगभग 35-36 भाषाओं का ज्ञान था। लेकिन मातृभाषाओं का सवाल मात्र राहुल का नहीं, पूरी जनता का सवाल था। उन्हें पता था कि मातृभाषाओं के ज्ञान के बिना व्यक्ति अपने सामाजिक परिवेश और प्रकृति के प्रति असंवेदनशील हो जाएगा।
आज जब सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का खतरा मँडरा रहा है। वैश्वीकरण की बाढ़ में हमारी भाषा-संस्कृति बहती चली जा रही है। बाजार अपना तर्क देकर छोटी-छोटी भाषाओं और संस्कृतियों को नष्ट करने पर तुला हुआ है। ऐसे समय में राहुल का याद आना लाजमी है। लोक भाषा और लोक-संस्कृति के लिए जब भी कोई आवाज उठेगी, तब राहुल जरूर याद आएंगे। इस समय बुद्धिजीवी वर्ग का यह दायित्व है कि वह खुद को संघर्षरत जनता के साथ जोड़े। जनता की भाषा में जनता के लिए साहित्य सृजित करे। जनता के दुःख, दर्द का हमसफर बने। यही राहुल जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।


संपर्क- 50, साबरमती छात्रावास, जेएनयू, नई दिल्लीह. jite.jnu@gmail.com


के बाद हिंदी कथा साहित्य में आम आदमी के जीवन को जगह देने और ग्रामीण जीवन को पुनर्स्‍थापित करने वाले महत्वपूर्ण कथाकार मार्कण्डेय जी नहीं रहे। उनका जन्‍म उत्तर प्रदेश में जौनपुर जिले के बराई गांव में दो मई 1930 को हुआ. जनवादी लेखक संघ के संस्थापकों में से एक मार्कण्‍डेय जी ने 1965 में 'माया' पत्रिका के साहित्य विशेषांक का संपादन किया था, जो हिन्‍दी कहानी के लिए मील का पत्‍थर साबित हुआ. इसके बाद उन्‍होंने 1969 से साहित्यिक पत्रिका 'कथा' का संपादन शुरू किया। इसके अभी तक 14 अंक ही निकल पाए हैं। साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में इस पत्रिका का सम्‍मानित स्‍थान है। अग्निबीज, सेमल के फूल(उपन्यास), पान फूल, महुवे का पेड़, हंसा जाए अकेला, सहज और शुभ, भूदान, माही, बीच के लोग (कहानी संग्रह), सपने तुम्हारे थे (कविता संग्रह), कहानी की बात (आलोचनात्मक कृति), पत्थर और परछाइयां (एकांकी संग्रह) आदि उनकी महत्वपूर्ण कृतियां हैं।
हिन्‍दी कथा साहित्‍य के इस शिखर पुरूष को हार्दिक श्रृद्धांजलि.


बाबासाहब अम्‍बेडकर और महात्‍मा गांधी सिर्फ दो व्‍यक्ति नहीं, दो 'स्‍कूल' हैं, दो वैचारिक केन्‍द्र हैं, दो संस्‍थाएं हैं। दोनों आधुनिक भारत के सर्वाधिक विवादास्‍पद चरित्रों में हैं। चूंकि दोनों लीक से हटकर चले, इसलिए उन पर उनके समय से लेकर आज तक सवाल उठाए जाते रहे हैं। दोनों की मंजिल एक-दूसरे से जितनी मिलती थी, रास्‍ते उतने ही जुदा थे। दोनों के संदर्भ में सर्वाधिक दुखद यह है कि दोनों के अनुयायियों ने दो ऐसे विशाल खेमे बना लिये हैं जो आपस में संवाद की कोई जरूरत नहीं समझते। अम्‍बेडकरवादियों के लिए गांधी दलितविरोधी हैं तो गांधीवादियों के लिए अम्‍बेडकर देशद्रोही। गांधीवादियों से अम्‍बेडकर को पढने की क्‍या अपेक्षा की जाए, वे गांधी को भी नहीं पढना चाहते। कुछ ऐसी ही स्थिति अंबेडकरवादियों की है। इसका परिणाम यह हुआ कि अंबेडकर और गांधी के मूल्‍य और उनका संघर्ष कहीं पीछे छूट गया है।

ऐसे समय में अंबेडकर और गांधी में संवाद की बेहद जरूरत है। इसी जरूरत को पूरा करने की दिशा में एक सार्थक प्रयास है अस्मिता थियेटर की नाट्य प्रस्‍तुति 'अंबेडकर और गांधी'। नाटक का प्रदर्शन 'अस्मिता थियेटर' के 18 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्‍य में चल रहे समारोहों के क्रम में 20 फरवरी की शाम दिल्‍ली के युरेका (सिंधिया हाउस) में किया गया। यह नाटक हमें अंबेडकर और गांधी के वर्ण, जाति और धर्म विषयक विचारों से परिचित कराता है। नाटक की शुरूआत अंबेडकर के एक महत्‍वपूर्ण कथन से होती है जिसमें वे भारत में शोषण जारी रखने के लिए अंग्रेजी सरकार की आलोचना करते हैं। संभवतः यह नाटक के लेखक की ओर से अंबेडकर को देशद्रोही कहने वालों के लिए जवाब है। नाटक एक तरफ डा. अंबेडकर की विचारधारा के निर्माण की प्रक्रिया और उससे उपजी संघर्ष की चेतना से परिचित कराता है, दूसरी तरफ 'जनता' द्वारा उनके विचारों को समझ न पाने की वजह से उपजी उनकी चिंता को भी जाहिर करता है।

पूरा नाटक अंबेडकर और गांधी के बीच लगातार संवाद के माध्‍यम से असहमति के बिंदुओं और उनके बीच सहमति के तत्‍वों की तलाश करता दिखता है। कांग्रेस और गांधी के लिए 'अस्‍पृश्‍यों की मुक्ति' एक अंदरूनी समस्‍या थी जबकि अंबेडकर के लिए सर्वाधिक अहम समस्‍या। जमींदारी प्रथा की तरह जाति प्रथा और अस्‍पृश्‍यता का समाधान गांधी हृदय परिवर्तन में खोजते थे। वे वर्णाश्रम को बनाये रखते हुए अस्‍पृश्‍यता खत्‍म करने के पक्षधर थे जबकि अंबेडकर वर्ण और जाति को ही अस्‍पृश्‍यता की जड मानते हुए इनका खात्‍मा जरूरी समझते थे। गांधी के 'दयाभाव' के बरक्‍स अंबेडकर अस्‍पृश्‍यों के लिए अधिकारों की मांग करते हैं।

पूना समझौते से पूर्व दोनों के मतभेद चरम पर थे। पूरे घटनाक्रम को नाटक दर्शकों के समक्ष जीवंत कर देता है। गांधी के अनशन ने अंबेडकर लिए द्वंद्व पैदा कर दिया। एक तरफ दलितों के लिए अधिकारों की लडाई का प्रश्‍न था, दूसरी तरफ गांधी का जीवन। यहां नाट्य-लेखक राजेश कुमार ने एक दिलचस्‍प प्रसंग सृजित किया है। अंबेडकर की गृहिणी पत्‍नी रमाबाई उन्‍हें इस द्वंद्व से मुक्ति दिलाने में मदद करती हैं। रमाबाई कहती हैं, ''सिद्धांत जान लेने के लिए नहीं, जान बचाने के लिए होते हैं...। आज तक महात्‍मा, लोगों की जान बचाते आए हैं, आप तो महात्‍मा की जान बचाने जा रहे हैं।'' अंबेडकर का द्वंद्व समाप्‍त हो जाता है और वे गांधी से मिलने का फैसला करते हैं।

नाटक में रमाबाई से जुडा एक और प्रसंग है। रमाबाई गणेशोत्‍सव देखने जाना चाहती हैं, अम्‍बेडकर उन्‍हें रोक लेते हैं। फिर वे रमा के प्रति अपने व्‍यवहार की आत्‍मालोचना करते हैं। शिल्‍पी मरवाहा ने रमा की भूमिका में अपने बेहतर अभिनय से इस दृश्‍य को और सजीव बना दिया है।

पूरा नाटक अंबेडकर और गांधी के संवाद पर केन्द्रित है। इसी संवाद से दोनों के विचार, सहमतियां-असहमतियां प्रकट होती हैं। अंबेडकर इसी संवाद में भारतीय धर्म, परंपरा और संस्‍कृति की तथाकथित महानता की कडी आलोचना कर उस पर प्रश्‍न चिन्‍ह लगाते हैं। सवर्णों द्वारा अस्‍पृश्‍यों की मुक्ति के बारे में उनका निष्‍कर्ष है- जिसने भोगा है उसकी पीडा वही समझ सकता है। यह निष्‍कर्ष अंबेडकर का है या नाटककार का- यह शोध का विषय है। इस पर शोध इसलिए भी जरूरी है क्‍योंकि यह समकालीन हिन्‍दी दलित विमर्श की सैद्धांतिकी का भी एक महत्‍वपूर्ण प्रश्‍न है।

नाटक का महत्‍व इस दृष्टि से भी है कि यह एक बहुत बडे ऐतिहासिक सत्‍य का उद्घाटन करता है, वह है- तमाम मतभेदों के बावजूद अंबेडकर और गांधी एक-दूसरे से घृणा नहीं करते थे। गांधी की हत्‍या से अंबेडकर आहत होते हैं, वहीं दूसरी तरफ गांधी की इच्‍छा है कि अगर मेरा दुवारा जन्‍म हो तो महाशूद्र के रूप में हो। दोनों के मन में एक-दूसरे को अपनी बात न समझा पाने की कसक है। नाटक के अंत में अंबेडकर अपने इस कथन से दर्शकों को एक जिम्‍मेदारी सौंप जाते हैं- 'अस्‍पृश्‍यता के सवाल पर हम अपने-अपने ढंग से लड रहे थे, गांधीजी संवाद अधूरा छोडकर चले गए'। अंबेडकरवादियों और गांधीवादियों को अपने-अपने खेमों से निकलकर इस संवाद को जारी रखने की जरूरत है। इस संवाद के अभाव का ही परिणाम है कि आरक्षण आदि मसलों पर अंबेडकरवादी और गांधीवादी कोई सहमति बनाने की बजाय उग्र हो जाते हैं। आज भी दलितों की मुक्ति से हम कोसों दूर हैं।


इस नाटक का एक और महत्‍व है- अंबेडकर और गांधी के क्रमशः विकसित होते चरित्र को रेखांकित करना। 1947 के गांधी वे नहीं हैं जो पूना पैक्‍ट के पहले थे। नाटक अंबेडकर की विचारधारा के निर्माण की प्रक्रिया को जितने बेहतर ढंग से प्रस्‍तुत करता है, उतना गांधी की विचारधारा के निर्माण को नहीं समझा पाता- यह नाटककार की एक सीमा कही जा सकती है। खास बात यह है कि नाटक अंबेडकर और गांधी को 'मसीहा' छवि से निकालकर मनुष्‍य के रूप में प्रस्‍तुत करता है- ऐसे मनुष्‍य जिनके कुछ अंतर्विरोध भी हैं।

संवाद केन्द्रित व विचारप्रधान होते हुए नाटक कहीं ऊब पैदा नहीं करता। इसकी वजह राजेश कुमार के सफल लेखन, अरविन्‍द गौड के सफल निर्देशन और कलाकारों के सफल अभिनय के अलावा दृश्‍यों के बीच में डाले गए समूह गीत भी हैं। 'हम लडेंगे साथी...', 'रुके ना जो, झुके ना जो...', 'वैष्‍णव जन तो तेने कहिए...', 'सबसे खतरनाक होता है...', 'उठ जाग मुसाफिर भोर भई...', 'तू जिंदा है, तू जिंदगी की जीत में यकीन कर...', 'सूनी राहों पर कोई कब तक चले...' आदि समूह गीत इसमें शामिल किये गए हैं और संगीता गौड ने नाटक का संगीत-निर्देशन किया है। गीतों का चयन सराहनीय है लेकिन कुछ गीतों की गायन शैली असहजता भी पैदा करती है।

अंबेडकर और गांधी का सफल किरदार क्रमशः बजरंग बली सिंह और वीरेन बसोया ने निभाया है। वीरेन बसोया की आवाज की तेजी गांधी के किरदार से कभी-कभी उन्‍हें दूर भी कर देती है. राज शर्मा, सौरभ पाल, मलय गर्ग, पंकज राज यादव, शिव चौहान, पूजा प्रधान, पंकज दत्‍ता, तोषम आचार्य, दिशा अरोडा, सवेरी गौड, काकोली गौड, राहुल खन्‍ना आदि का अभिनय भी सराहनीय था। नाटक के प्रदर्शन के बाद उस पर संवाद का आयोजन भी किया गया जिसमें दर्शकों ने अपनी प्रतिक्रियाएं व्‍यक्‍त करते हुए अपनी जिज्ञासाएं नाटक के निर्देशक अरविन्‍द गौड के समक्ष रखी।




संपर्क- भारतीय भाषा केन्‍द्र, जेएनयू, नई दिल्‍ली-67















सोमवार, 30 मार्च। भारतीय भाषा केन्द्र (CIL), जेएनयू की ओर से ‘आज का समय और प्रेमचंद’ विषय पर व्याख्यान का आयोजन किया गया। मुख्य वक्ता के तौर पर बोलते हुए प्रो. रामबक्ष ने प्रेमचंद साहित्य के कई विचारणीय मुद्दों को सामने रखा।

व्याख्यान की शुरूआत करते हुए उन्होंने बताया कि प्रेमचंद पर सोचने-विचारने वालों के दो प्रमुख वर्ग हैं- पहले वर्ग में प्रेमचंद का अध्ययन और शोध करने वाले विद्यार्थी हैं तो दूसरा वर्ग उन साहित्यकारों-आलोचकों का है जो प्रेमचंद पर टिप्पणियाँ करते हैं। पहला वर्ग प्रेमचंद के साहित्य को जहाँ समझने का प्रयास करता है, वहीं दूसरा वर्ग उनके साहित्य को विभिन्न आयामों से विश्लेषित करने का प्रयास करता है। प्रो. रामबक्ष ने प्रेमचंद जैसे आम जन के लेखक को ‘सेलिब्रिटी’ बनाने के प्रयास को समझने की जरूरत पर बल दिया। उनके अनुसार सेलिब्रिटी लेखक का लेखन आदर्श और आस्था से जुड़कर सवालों और जिज्ञासाओं का मुखापेक्षी नहीं रहता। सेलिब्रिटी लेखक ‘मीडियाकर’ बन जाता है और कुछ विशेष रुचि के अनुसार बोलने लगता है जबकि प्रेमचंद ने कहा था ‘साहित्य जनता की अभिरुचि का गुलाम नहीं होता’।
प्रो. रामबक्ष ने आगे कहा कि प्रेमचंद को पढ़ते हुए हम उनके समय की पूरी परंपरा को पढ़ते हैं। उस समय के समाज, संस्कृति, लोक-व्यवहार आदि सबकुछ उसमें समाहित होता है। परन्तु आज प्रेमचंद के अध्ययन की मूल समस्या है कि हम प्रेमचंद के पाठ तक आग्रह-मुक्त होकर नहीं पहुँच पाते। प्रेमचंद के समय के लोगों ने उनको जिस प्रकार से पढ़ा-समझा था, आज हम प्रेमचंद के विभिन्न आलोचकों, जीवनीकारों की वजह से उसी प्रकार से नहीं पढ़-समझ पाते। उनके द्वारा स्थापित विचार इस सहज पाठ में बाधा उत्पन्न करते हैं। प्रो. रामबक्ष ने आगे बताया कि आज का समय यथा स्थितिवाद का समय प्रतीत होता है। आज समाज में परिवर्तन की संभावना बहुत क्षीण प्रतीत होती है। ऐसे में प्रेमचंद का लेखन एक आशा का संचार करता है। स्वाधीनता प्राप्ति से पूर्व साहित्य और समाज में जब यथास्थितिवाद की स्थिति बनी हुई थी, तब प्रेमचंद इसे चुनौती देते हुए प्रतीत होते हैं। सामाजिक कुरीतियों, महाजनी-षोषण, औपनिवेषिक दमन, मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी का दोगलापन आदि को चुनौती देता हुआ किसान-मजदूर, आम जनों को स्वाधीनता प्राप्ति के केन्द्र में स्थापित करता है। इसीलिए आज भी हम प्रेमचंद के साहित्य के पास अपनी समस्याओं और चिंताओं के साथ जाते हैं।
प्रो. रामबक्ष ने कहा कि प्रेमचंद का साहित्य निष्चित रूप से किसानों को केन्द्र में रखकर चलता है परन्तु वह किसानों को संबोधित नहीं है। प्रेमचंद का साहित्य मध्यवर्ग को संबोधित करने वाला साहित्य है जो बुद्धिजीवी वर्ग को किसान चेतना से लैस करता है। प्रेमचंद की स्पष्ठ समझ थी कि किसान के बचने और बनने से ही देष बचेगा और बनेगा। इसीलिए वह किसानों के पक्ष में पूरे राष्ट्र निर्माण को खड़ा करते हैं। प्रो. रामबक्ष ने आगे कहा कि जहाँ साम्यवादी दृष्टि किसान से मजदूर होने की प्रक्रिया को क्रांति के लिए महत्त्वपूर्ण मानती है, वहीं प्रेमचंद किसान के बने रहने में राष्ट्र की भलाई देखते हैं। प्रेमचंद किसानों के लिए रैयतवारी व्यवस्था को इस्तमरारी व्यवस्था से श्रेष्ठ मानते थे क्योंकि इसमें जमींदारों के शोषण से किसान बना रहता है। प्रेमाश्रम में उन्होंने जमींदाहीन गाँव को श्रेष्ठ बताया भी है।
प्रो. रामबक्ष ने आगे कहा कि प्रेमचंद इस ऐतिहासिक समझ वाले अपने समय के एकमात्र रचनाकार हैं जिन्होंने यह कहा कि जमींदार वर्ग की हस्ती मिट जाने वाली है। पात्रों का आगे चलकर कैसा विकास होगा, वे यह भलीभाँति जानते थे। इसी कारण उनके पात्रों के क्रमश: विकास और चित्रण को गौर से देखा जाना चाहिए। यह भी देखा जाना चाहिए कि वे कौनसे पात्र को रखते हैं और किस पात्र को समाप्त कर देते हैं। वे बताते हैं कि गोदान में मि. तंखा की स्थिति को गौर से समझा जाना चाहिए। सामंतवादी व्यवस्था के पूँजीवादी व्यवस्था में परिवर्तन के बावजूद मि. तंखा की स्थिति में कोई अंतर नहीं आता। वह आज के ब्यूरोक्रेट्स का प्रतिनिधित्व करने वाला पात्र है। प्रेमचंद जितनी शिद्दत के साथ अपने समय और परिस्थितियों को भी जान रहे थे। आज के समय में उनका साहित्य इसीलिए विचारणीय बना हुआ है। प्रेमचंद पात्रों को उनकी पूरी मानवीय गरिमा में चित्रित करने वाले रचनाकार हैं। प्रेमचंद व्यापक जीवनानुभवों वाले रचनाकार हैं।
प्रो. रामबक्ष ने अपने व्याख्यान का अंत करते हुए प्रेमचंद की एक सीमा की ओर इशारा करते हुए कहा कि वे आज भी अपढ़ और गरीब लोगों के रचनाकार नहीं बन पाये हैं। इस पर गंभीरता से विचार करने का दायित्व हमारा है।
कार्यक्रम का संचालन गंगासहाय मीणा ने किया और धन्यवाद ज्ञापन डा. ओमप्रकाश सिंह ने किया। विद्यार्थियों की भागीदारी उत्साहजनक थी। आफताब, धवल, रामानंद, आलोक, संदीप, योगेश, राजीव आदि ने अपनी जिज्ञासाएँ सामने रखीं।

[भारतीय भाषा केन्द्र की ओर से प्रो. अब्दुल बिस्मिल्लाह (अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, जामिया मिलिया इस्लामिया) को ‘प्रेमचंद की हिन्दी-उर्दू रचनाएं’ विषय पर बोलने के लिए आमंत्रित किया गया। 29 अगस्त, 2008 को उन्होंने इस विषय पर भारतीय भाषा केन्द्र में एक विचारोत्तेजक भाषण दिया। उल्लेखनीय है कि प्रो. बिस्मिल्लाह प्रेमचंद के उर्दू-हिन्दी लेखन पर पिछले काफ़ी समय से काम कर रहे हैं। प्रस्तुत है प्रो. अब्दुल बिस्मिल्लाह के भाषण का हू-ब-हू टेपांकन।]



दोस्तों, प्रेमचंद के हिन्दी-उर्दू लेखन के संबंध में कुछ बातें मैं आपसे करूंगा। दरअसल, इसकी शुरूआत हुई थी, मतलब मेरे विचार की, मेरे अध्ययन की, प्रेमचंद की एक कहानी है- क़फ़न। क़फ़न कहानी सबसे पहले प्रेमचंद ने उर्दू में लिखी थी, और जहां मैं पढ़ाता हूं- जामिया मिलिया इस्लामिया, उसके गेस्ट हाउस में बैठकर उन्होंने यह कहानी लिखी थी- सन 1935 में। उस ज़माने में जामिया मिलिया इस्लामिया, आज जहां पर है, वहां नहीं था, बल्कि, करोल बाग के इलाक़े में ये विश्वविद्यालय, इसकी इमारतें वहां हुआ करती थीं। 1920 में जामिया मिलिया इस्लामिया की स्थापना हुई और दो-तीन साल बाद ही जामिया ने एक छोटी सी पत्रिका निकालनी शुरू की थी उर्दू में- रिसाला जामिया नाम से। रिसाला जामिया के तत्कालीन संपादक के आग्रह पर प्रेमचंद ने ये कहानी लिखी थी। प्रेमचंद एक दिन के लिए यहां दिल्ली में रुके हुए थे, वर्धा से लौटे थे, अगले दिन उनको लौट जाना था बनारस। रिसाला जामिया के तत्कालीन संपादक ने प्रेमचंद से आग्रह किया कि आप हमारी रिसाला जामिया के लिए कोई रचना देते जाइए। प्रेमचंद ने एक रचना लिखी और उन्हें देकर चले गए। वह रचना है- क़फ़न, जो रिसाला जामिया के दिसम्बर, 1935 के अंक में छपी। बाद में, अप्रैल, 1936 में, ये कहानी हिन्दी में हंस में छ्पी। जब क़फ़न कहानी की खोज की मैंने, अब तो सब जान गए कि क़फ़न कहानी पहले उर्दू में लिखी गई, पहले कोई नहीं जानता था, नामवर जी ने कहा था मुझे इस कहानी को खोजने के लिए, उर्दू में ओरिजिनल कहां मिलेगी? चूंकि जामिया मिलिया में मैं नया-नया आया था, और उस समय रिसाला जामिया के वे संपादक जीवित थे, पता ये चला कि रिसाला जामिया की फ़ाइलें होंगी यहां, उनमें दिसम्बर, 1935 के अंक में मिल जाएगी ये कहानी। अब वो कहानी मुझे मिल गई। बाद में, शायद आप लोगों को पता होगा ये कि वर्तमान साहित्य के कथा विशेषांक में मेरा एक लेख है, क़फ़न कहानी के उर्दू और हिन्दी वर्ज़न का अध्ययन है, और ओरिजिनल उर्दू कहानी भी उसमें छ्पी है, मैंने उसका देवनागरी में लिप्यांतर करके दिया। जब प्रेमचंद की उर्दू में लिखी हुई ओरिजिनल कहानी मैंने पढ़ी, मेरा दिमाग़ न काम करे- ये सिलेबस में हमने जो कहानी पढ़ रखी है, ये कौनसी क़फ़न है? क्योंकि हिन्दी में जो कहानी क़फ़न पढ़ी-पढ़ाई जाती रही है, आज भी पढ़ाई जा रही है, वह मूल उर्दू कहानी से ऐसा लगता है कि अनुदित, प्रेमचंद के बारें में ये कहना कि वे पहले उर्दू में लिखते थे, बाद में हिन्दी में आ गए, यह प्रचारित मत है, यह सत्य नहीं है। प्रेमचंद उर्दू में भी लिखते थे, और हिन्दी में भी लिखते थे। प्रेमचंद बहुत कुछ जो हिन्दी में लिखते थे, उसे स्वयं उर्दू में कर देते थे। जो उर्दू में लिखते थे, उसे हिन्दी में कर देते थे। कुछ को वे स्वयं नहीं करते थे। उनके एक मित्र थे, जब वे कानपुर में थे, उनके फ़तहपुर में एक मित्र थे- इक़बाल बहादुर वर्मा ‘सहज’, बहुत सारे लिप्यांतरण या अनुवाद उन्होंने किये। कुछ अन्य लोगों ने भी किए। 36 में जिस ज़माने में ये रचना प्रेमचंद ने लिखी, उनका जीवन काफ़ी अस्त-व्यस्त था, यात्राएं बहुत कर रहे थे। बनारस में टिककर बैठे नहीं। तो, मुझे नहीं लगता कि प्रेमचंद ने स्वयं इसे अनुदित किया होगा। इसलिए भी नहीं लगता क्योंकि अगर स्वयं हिन्दी में करते तो इतनी गड़बड़ियां न करते, जितनी उसमें हैं। बहुत से शब्दों और वाक्यों के अनुवाद असंगत हैं। कई स्थानों पर अर्थ का अनर्थ कर दिया गया है। कई चीजें छोड़ दी गई हैं, कई चीजें जोड़ दी गई हैं। बहुत सारे अनुवाद अनावश्यक हैं, जिनकी कोई ज़रूरत नहीं थी। जैसे मैं कुछ उदाहरण दूं- असंगत अनुवाद, उर्दू वर्ज़न में है, अच्छा ध्यान दीजिए आप, प्रेमचंद ने उर्दू में ‘माधो’ लिखा है, हिन्दी में ‘माधव’। अरे यार गांव का आदमी है वो, बज्र देहात। गांव में माधव कोई नहीं बोलता, माधो...। उर्दू में चूंकि ‘माधो’ ऐसे लिखा जाता है, उसे आप ‘माधो’ भी पढ़ सकते हैं, ‘माधव’ भी पढ़ सकते हैं। हिन्दी में वो ‘माधव’ हो गया, जबकि है- घीसू और माधो। प्रेमचंद दोनों की प्रवृत्ति के बारे में लिखते हैं- इनका जीवन था वो ‘ज़ाहिदाना अंदाज़’, उर्दू में। जीवनयापन करते थे ये वो ‘ज़ाहिदाना अंदाज़’। हिन्दी में कर दिया है कि ‘आकाशवृत्ति’ अपना पेट पालन करते थे। ‘आकाशवृत्ति’। कहां ‘ज़ाहिदाना अंदाज़’, यानी फ़कीरों का अंदाज, और कहां ‘आकाशवृत्ति’? एक शब्द इस्तेमाल किया उन्होंने- ‘इन्तकाम’। अगर ‘इन्तकाम’ का अनुवाद ही करना है हिन्दी में, तो ‘इन्तकाम’ का होगा ‘प्रतिशोध’। यानी बदला लेना। हिन्दी में मिलेगा आपको ‘दण्ड’। अब ‘इन्तकाम’ का प्रेमचंद ‘दण्ड’ तो नहीं कर सकते। या तो ‘प्रतिशोध’ करते, या ‘बदला’ करते। एक जगह है- ‘इत्तफ़ाकन या अवदन’, इसका मतलब है- या तो ये इत्तिफ़ाक से हुआ या जान-बूझकर हुआ। इसका हिन्दी कहानी में ‘न जाने किस दैवी प्रेरणा से’ कर दिया। एकदम फ़र्क। बहुत थोड़े से उदाहरण मैं बता रहा हूं, पढ़ना है तो मेरा पूरा लेख पढ़ लीजिएगा वर्तमान साहित्य में।

कहीं-कहीं ज़रूरत ही नहीं थी बदलने की, और बदल दिया। जैसे उर्दू में लिखा है- ‘नौजवान’, ‘नौजवान’ क्या हिन्दी वाला नहीं समझेगा? उसको कर दिया हिन्दी में ‘जवान’, ‘नौ’ हटा दिया। क्या ज़रूरत थी भई, नौजवान को जवान करने की? अच्छा, उर्दू में लिखा है- ‘महकती हुई’, पुड़ियों के लिए लिखा है- ‘महकती हुई’। ‘महकती हुई’ बहुत कठिन उर्दू है क्या? हिन्दी में कर दिया- ‘सुवासित’। मुझे ‘सुवासित’ में से कोई खुशबू नहीं आ रही, ‘महकती हुई’ में से तो खुशबू आ रही है। लेकिन ‘महकती हुई’ को ‘सुवासित’ करने की क्या ज़रूरत थी?

ध्यान दीजिए, उर्दू कहानी में, जहां शराब पीते हैं दोनों मिलकर, उसके लिए प्रयोग किया- ‘मैखाना’, अब हिन्दी में, बनारस वालों के पास जो शराब पीने की जगह होती थी- बार, उन्हें ‘मैखाना’ तो नहीं कहा जाता था, या तो ‘ठेका’ कहते थे लोग, या ‘हौळी’ कहते थे, अभी भी वही कहते हैं। लेकिन शायद हरिवंशराय बच्चन का प्रभाव है, क्योंकि 1933 में बच्चन की किताब आ गई थी- मधुशाला । तो हिन्दी कहानी में ‘मैखाना’ की जगह ‘मधुशाला’ हो गया है। ‘ठेका’ या ‘हौळी’ नहीं है, ‘मधुशाला’ है। अब तो ‘मधुशाला’ शब्द देखने को मिल जाता है, शराब की दुकान पे, छोटे शहरों में, कस्बों में, लेकिन उस ज़माने में ‘मधुशाला’ शब्द ठेके के लिए, या शराबघर के लिए शायद ही इस्तेमाल होता होगा। लेकिन हिन्दी कहानी में है ‘मधुशाला’।

अब वहां शराब पी रहे हैं। उर्दू कहानी में, शराब के साथ जो चीज खानी चाहिए वो लिखा हुआ है- शराब के साथ गोश्त, सालन, और चटपटी कलेजियां। अब गोश्त, सालन और चटपटी कलेजियां में क्या दिक्कत थी? हिन्दी कहानी में आके हो गया- चटनी-अचार। शराब के साथ चटनी-अचार।

अब बुधिया जो केरेक्टर है, माधो की पत्नी, उसके बारे में एक वाक्य है प्रेमचंद का। वह इतना मार्मिक वाक्य है, बुधिया के चरित्र को उत्कृष्ठ कोटि का साबित करने वाला वाक्य, जो उर्दू क़फ़न में तो है, हिन्दी क़फ़न में नहीं है। क्यों नहीं है? क्या ज़रूरत थी उस वाक्य को हटाने की? वाक्य मैं पढ़के सुना रहा हूं- ‘पिसाई करके, घास छीलकर वह सेरभर आटे का इंतजाम कर लेती थी’, बहुत सामान्य सा वाक्य है। लेकिन बुधिया के चरित्र को, दोनों की तुलना में देखिए, ये दोनों कुछ काम नहीं कर रहे हैं, और वह स्त्री ‘पिसाई करके, घास छीलकर वह सेरभर आटे का इंतजाम कर लेती थी’, उससे काम चलता था,लेकिन चूंकि अब वह इस लायक नहीं, उसके अंदर अब वो क्षमता नहीं है, प्रसव के दिन करीब आ गए हैं, अब वह काम नहीं कर पा रही है, तो दोनों कामचोर, चोरी करके आलू भूनकर खा रहे हैं। तो, बुधिया के केरेक्टर को हाइलाइट करने वाला यह जो वाक्य है, उर्दू क़फ़न में है, वह हिन्दी क़फ़न में गायब है।

शब्दों का संबंध सिर्फ़ भाषा से नहीं होता, संस्कृति से होता है, सभ्यता से होता है। ‘उर्दू तहज़ीब’, उर्दू भाषी लोग जिस तरह की उर्दू बोलते और समझते थे, उस समय हिन्दी समाज ऐसा नहीं था कि ठीक उसी तरह की हिन्दी को समझता रहा हो। जैसे मान लीजिए उर्दू में वो कहते हैं- ‘अपनी ग़ैर-मुतवक़्क़ा ख़ुशनसीबी पर माधो भी हंसा’। उर्दू भाषी समाज के लिए यह कोई कठिन वाक्य नहीं है। हिन्दी में है- ‘अपने अनपेक्षित सौभाग्य पर माधव भी हंसा। ‘गै़र-मुतवक़क़ा ख़ुशी’- ये उर्दू भाषी समाज के लिए मुश्किल नहीं है, और ये ‘अनपेक्षित सौभाग्य’ आज भी विचित्र है, अगर बाहर आप बोलिए। अगर आप किसी सब्जी की दुकान पर जाएं और कहें- ‘मुझे एक गोभी की आवश्यकता है’, तो ऐसे देखेगा, कि क्या बोल रहा है!अच्छा, प्रेमचंद तो देसी आदमी, देसी भाषा- ‘देशी’ नहीं कह रहा हूं मैं, ‘देसी’, तो ‘देसी’ भाषा का प्रयोग कर रहे थे। हिन्दी में शुद्धीकरण पर बड़ा जोर है। प्रेमचंद ने उर्दू में ‘सादी’ लिखा है, मैरिज के लिए, और हिन्दी कहानी में ‘शादी’ लिखा हुआ है, जबकि उल्टा है- उर्दू में लिखना चाहिए था उनको ‘शादी’। लेकिन प्रेमचंद जानते थे कि ‘शादी’ कोई नहीं बोलता गांव में, सादी-ब्याह। ‘मगर’ एक शब्द है, हिन्दी में ‘मगर’ लिखा हुआ है। अब, बनारस के आसपास ‘मगर’ नहीं बोलते हैं, ‘मुदा’ बोलते हैं। उर्दू में ‘मुदा’ लिखा है प्रेमचंद ने, जो बोलचाल का शब्द है ‘मुदा’ वही लिखा है। हिन्दी में ‘मगर’ लिखा हुआ है। उर्दू में प्रेमचंद ने ‘खुस्स’ लिखा है, और हिन्दी में ‘ख़ुश’।
इस तरह से ये जो कहानी है क़फ़न, पता नहीं किसने अनुवाद किया है, जिसने उसका हिन्दीकरण किया है, और उसको इस छेड़छाड़ की ज़रूरत क्यों महसूस हुई? यह तर्क से परे है।
जैसा कि मैंने बताया कि प्रेमचंद ने हिन्दी और उर्दू, दोनों में लिखा, साथ-साथ। नाम थोड़ा सा, शीर्षक बदलते थे। जैसे शतरंज के खिलाड़ी, उर्दू में ये कहानी मिलेगी आपको शतरंज की बाज़ी नाम से। दूध का दाम, उर्दू में ये कहानी मिलेगी- दूध की कीमत। ये प्रेमचंद के खुद बदले हुए नाम हैं, जो भाषा की संस्कृति को देखते हुए परिवर्तित कर दिए हैं। पंच-परमेश्वर कहानी है, उर्दू में पं
चायत। हिंदी की उनकी बड़ी मशहूर कहानी सद्गति, उर्दू में निजात। अच्छा, कुछ कहानियां प्रेमचंद की ऐसी हैं जो हिन्दी में पहले लिखी गईं, बाद में उनको हिन्दी में किया; कुछ कहानियां ऐसी हैं जो उर्दू में पहले लिखी गई, बाद में उन्हें हिन्दी में किया। जैसे उर्दू में उन्होंने एक कहानी लिखी- हज़े-अकबर, ‘हज़’ तीर्थ को कहते हैं, ‘अकबर’ श्रेष्ठ को कहते हैं। ये हिन्दी के पाठकों को समझ में ना आता, इसलिए हिन्दी में उन्होंने शीर्षक रखा- महातीर्थ। हिन्दी में उनकी एक कहानी मिलती है- पिसनहारी का कुंआ, ठाकुर का कुंआ नहीं, उर्दू में ये कहानी मिलती है- चौराहे का कुंआ। और ‘पिसनहारी का कुंआ’, बनारस के पांडेपुर इलाके में. जिसका ‘रंगभूमि’ में चित्रण हुआ है, वहां ये पिसनहारी का कुंआ था। इस तरह से अनेक अंतर आपको प्रेमचंद साहित्य में मिलेंगे।
उपन्यासों में एक उपन्यास उनका ऐसा है जिसका हिन्दीकरण करना बड़ा मुश्किल है। आप जानते हैं कि प्रेमचंद के शुरूआती चार उपन्यास ऐसे हैं जो उर्दू में लिखे गए, अब तो सब हिन्दी में उपलब्ध हैं। एक उपन्यास है उनका-हमखुर्मा व हमसवाब। इसका हिन्दी में नामकरण बहुत मुश्किल है। प्रेमचंद ने भी कोशिश नहीं की। इस उपन्यास की कहानी न जाने प्रेमचंद को क्यों बहुत पसंद थी, इसलिए हिन्दी में उन्होंने इसे दो बार और लिखा। एक प्रेमा और दूसरा प्रतिज्ञा। इन दोनों में वही कहानी है जो हमखुर्मा व हमसवाब में है।
उस ज़माने में दो नाम रखने की परंपरा थी। जैसे उनका एक अन्य उपन्यास है- असरारे-मआबिद उर्फ़ देवस्थान रहस्यहमख़ुर्मा व हमसवाब के भी उर्फ़ लगाया उन्होंने और लिखा- ‘दो सहेलियों का ब्याह’। उर्दू में हिन्दी में ट्रांसफ़र करते वक़्त प्रेमचंद बहुत सतर्क और बहुत सजग लेखक रहे हैं। वे जानते थे कि उर्दू में कौनसी चीज चल जाएगी, जो हिन्दी में नहीं चलेगी। जैसे हमखुर्मा व हमसवाब में एक जगह एक वाक्य आता है कि ‘उर्दू जबान पर ऐसे ही वक़्त गुस्सा आता है’। उर्दू का पाठक इसको पढ़ेगा तो उसके ऊपर कोई असर नहीं पड़ेगा। लेकिन अगर यही हिन्दी में छप जाए तो क्या होगा? अगर आज भी कोई हिन्दी का लेखक ऐसा लिख दे तो उर्दू वाले तो उसकी हालत खराब कर देंगे। तो, हिन्दी में प्रेमचंद ने लिख दिया कि ‘मुझको रह-रहकर अपने ऊपर क्रोध आता है’। ये जो उपन्यास है, इसमें हिन्दी में 10 पंक्तियां ज्यादा हैं। उर्दू में जहां ये उपन्यास खत्म होता है, हिन्दी में वहीं पर खत्म नहीं होता। उर्दू में अंतिम वाक्य है- ‘प्रेमा ने उस पिस्तौल का गौसा लिया’। चूमा। उपन्यास का अंत। हिन्दी में इसके बाद दस लाइनें और लिखी गईं हैं। और उसके बाद अंतिम वाक्य लिखा- ‘जलसा कराइए, जलसा! यों पीछा न छूटेगा’। उर्दू जबान वाले किस्से की तरह ही इनकी मृतकभोज कहानी में एक सेठ झाबरमल हैं, सुशीला नाम की एक स्त्री को किराये पर कमरा दिये हुए हैं। किराया मांगने जाते हैं तो वो अपनी मजबूरी बताती है, नहीं दे पाती। सेठ झाबरमल सुशीला से कहता है- ‘कोई मुसलमान होता तो उसे चुपके से महीने-महीने दे देती’। अगर हिन्दी में प्रेमचंद ऐसा ही लिख देते तो बबाल हो जाता। हिन्दी में टाल दिया और लिखा- ‘कोई और होता तो महीने के महीने दे देती’। ये परिवर्तन एक जिम्मेदार लेखक होने के सबूत पेश करते हैं। कहीं-कहीं पर उन्होंने नाम बदल दिये हैं। हजे़-अकबर जो कहानी है, वो पूरी तरह से मुस्लिम समाज और संस्कृति का चित्रण करने वाली कहानी है। उसे हिन्दी में ट्रांसफ़र करते वक़्त प्रेमचंद हिन्दी समाज या कहिए हिन्दू समाज और संस्कृति का चित्रण करने वाली कहानी बना देते हैं। तो ज़ाहिर है फ़िर नाम भी बदलेंगे। तो नाम बदला उन्होंने। वहां मुंशी साबिर हुसैन हैं तो यहां मुंशी इन्द्रमणि, वहां मुंशी साबिर हुसैन की पत्नी शाकिरा हैं तो यहां मुंशी इन्द्रमणि की पत्नी सुखदा हैं, वहां बेटा नसीर मियां है तो यहां बेटा रुद्रमणि है। इन्द्रमणि का बेटा तो रुद्रमणि ही होगा ना? नौकरानी तक का नाम बदल दिया। वहां नौकरानी अब्बासी है तो हिन्दी मै कैलाशी है। बदल दिया।एक अंतिम बात और बता दूं आपको कि प्रेमचंद की एक और महत्वपूर्ण कहानी है- पूस की रात । वह कहानी भी उर्दू में अलग है और हिन्दी में अलग है। पूरी तरह से नहीं। हिन्दी कहानी के अंत को लेकर आलोचकों ने कहा कि ये पलायनवादी कहानी है, क्योंकि प्रेमचंद एक किसान से उसकी खेती नष्ट हो जाने पर कहलवाते हैं कि ‘चलो अच्छा हुआ, रात की ठण्ड में यहां सोना तो न पड़ेगा।’ कहानी ख़त्म हो जाती है। लगता है कि यह पलायनवाद है। उसकी खेती नष्ट हो गई और खुशी हो रही है। बंधुओं, वह खुशी नहीं है, वह छ्टपटाहट है, वो दर्द है, वो पीड़ा है। देखा होगा समाज में कि घर में, परिवार में कोई व्यक्ति बहुत बीमार रहता है, बहुत बीमार रहता है, दिन-रात उनके साथ लगे रहना पड़ता है, उनकी गंदगी साफ़ करनी पड़ती है, उठाना-बैठाना पड़ता है। अगर उसकी मृत्यु हो जाती है, तो कहते हैं- अच्छा हुआ। लेकिन क्या ये ‘अच्छा हुआ’ में क्या कोई खुशी है? इसमें खुशी नहीं है। तो, ये कहना कि ‘चलो अच्छा हुआ, रात की ठण्ड में यहां सोना तो न पड़ेगा’, ये कोई खुशी नहीं है। जब हमें कुछ मिल नहीं रहा होता तो उसके नष्ट हो जाने पर किसी प्रकार का भाव जाग्रत नहीं होता। क्योंकि कुछ नहीं मिलता उससे। तो, इस दृष्टि से इस कहानी को देखिए। तब समझ में आएगा कि कहानी में पलायनवाद नहीं है। ये तो हुई एक बात, अब दूसरी बात बताता हूं। कहानी का यह अंत प्रेमचंद को भी खटका होगा। जब उन्होंने इसी कहानी को उर्दू में लिखा तो इसका अंत बदल दिया। अंत बदलने के लिए लगभग 19 पंक्तियां और लिखते हैं। कहानी यहां ख़त्म नहीं होती। वो जब घर आता है लौटकर, तो पत्नी से उसका डायलाग होता है, बातचीत होती है। खेत उजड़ चुका है, दुख भी है और रोष भी। रोष किसके प्रति है? उसके प्रति जिसकी ज़मीन है। ज़मीन का लगान देना पड़ेगा, फसल चौपट हो गई। नष्ट हो गई। संवाद ज़रा सुनिए- ‘मैं लगान न दूंगी’ मुन्नी कहती है। हल्कू का संवाद है- ‘जबरा अभी तक सोया हुआ है’। मुन्नी के वाक्य में और हल्कू के वाक्य में कोई संबंध नहीं। मुन्नी कहती है- ‘सहना से कह दो, खेत जानवर चर गए’। हल्कू कहता है- ‘रात बड़े गजब की सर्दी थी’। मुन्नी के संवाद से कोई लेना-देना नहीं। लेकिन जब मुन्नी झल्लाकर कहती है- ‘तो छोड़ दो खेती’। तो हल्कू कहता है, यह कहानी का अंतिम संवाद है, ‘ किसान का बेटा होकर अब मजूरी न करूंगा, चाहे कितनी दुर्गत हो जाए, खेती का काम न बिगाड़ूंगा’। ये उर्दू कहानी पूस की रात का अंत है। इसलिए दोस्तों, प्रेमचंद को समझने के लिए दोनों आंखों की ज़रूरत है। केवल हिन्दी पाठ से प्रेमचंद को नहीं समझ सकते, केवल उर्दू पाठ से भी प्रेमचंद को नहीं समझ सकते। दोनों पाठों को समानांतर रखके अगर प्रेमचंद का अध्ययन किया जाए, तभी हम प्रेमचंद को भली-भांति समझ सकते हैं। धन्यवाद।


टेपांकन व प्रस्तुति- गंगासहाय मीणा

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