[भारतीय भाषा केन्द्र की ओर से प्रो. अब्दुल बिस्मिल्लाह (अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, जामिया मिलिया इस्लामिया) को ‘प्रेमचंद की हिन्दी-उर्दू रचनाएं’ विषय पर बोलने के लिए आमंत्रित किया गया। 29 अगस्त, 2008 को उन्होंने इस विषय पर भारतीय भाषा केन्द्र में एक विचारोत्तेजक भाषण दिया। उल्लेखनीय है कि प्रो. बिस्मिल्लाह प्रेमचंद के उर्दू-हिन्दी लेखन पर पिछले काफ़ी समय से काम कर रहे हैं। प्रस्तुत है प्रो. अब्दुल बिस्मिल्लाह के भाषण का हू-ब-हू टेपांकन।]
दोस्तों, प्रेमचंद के हिन्दी-उर्दू लेखन के संबंध में कुछ बातें मैं आपसे करूंगा। दरअसल, इसकी शुरूआत हुई थी, मतलब मेरे विचार की, मेरे अध्ययन की, प्रेमचंद की एक कहानी है- क़फ़न। क़फ़न कहानी सबसे पहले प्रेमचंद ने उर्दू में लिखी थी, और जहां मैं पढ़ाता हूं- जामिया मिलिया इस्लामिया, उसके गेस्ट हाउस में बैठकर उन्होंने यह कहानी लिखी थी- सन 1935 में। उस ज़माने में जामिया मिलिया इस्लामिया, आज जहां पर है, वहां नहीं था, बल्कि, करोल बाग के इलाक़े में ये विश्वविद्यालय, इसकी इमारतें वहां हुआ करती थीं। 1920 में जामिया मिलिया इस्लामिया की स्थापना हुई और दो-तीन साल बाद ही जामिया ने एक छोटी सी पत्रिका निकालनी शुरू की थी उर्दू में- रिसाला जामिया नाम से। रिसाला जामिया के तत्कालीन संपादक के आग्रह पर प्रेमचंद ने ये कहानी लिखी थी। प्रेमचंद एक दिन के लिए यहां दिल्ली में रुके हुए थे, वर्धा से लौटे थे, अगले दिन उनको लौट जाना था बनारस। रिसाला जामिया के तत्कालीन संपादक ने प्रेमचंद से आग्रह किया कि आप हमारी रिसाला जामिया के लिए कोई रचना देते जाइए। प्रेमचंद ने एक रचना लिखी और उन्हें देकर चले गए। वह रचना है- क़फ़न, जो रिसाला जामिया के दिसम्बर, 1935 के अंक में छपी। बाद में, अप्रैल, 1936 में, ये कहानी हिन्दी में हंस में छ्पी। जब क़फ़न कहानी की खोज की मैंने, अब तो सब जान गए कि क़फ़न कहानी पहले उर्दू में लिखी गई, पहले कोई नहीं जानता था, नामवर जी ने कहा था मुझे इस कहानी को खोजने के लिए, उर्दू में ओरिजिनल कहां मिलेगी? चूंकि जामिया मिलिया में मैं नया-नया आया था, और उस समय रिसाला जामिया के वे संपादक जीवित थे, पता ये चला कि रिसाला जामिया की फ़ाइलें होंगी यहां, उनमें दिसम्बर, 1935 के अंक में मिल जाएगी ये कहानी। अब वो कहानी मुझे मिल गई। बाद में, शायद आप लोगों को पता होगा ये कि वर्तमान साहित्य के कथा विशेषांक में मेरा एक लेख है, क़फ़न कहानी के उर्दू और हिन्दी वर्ज़न का अध्ययन है, और ओरिजिनल उर्दू कहानी भी उसमें छ्पी है, मैंने उसका देवनागरी में लिप्यांतर करके दिया। जब प्रेमचंद की उर्दू में लिखी हुई ओरिजिनल कहानी मैंने पढ़ी, मेरा दिमाग़ न काम करे- ये सिलेबस में हमने जो कहानी पढ़ रखी है, ये कौनसी क़फ़न है? क्योंकि हिन्दी में जो कहानी क़फ़न पढ़ी-पढ़ाई जाती रही है, आज भी पढ़ाई जा रही है, वह मूल उर्दू कहानी से ऐसा लगता है कि अनुदित, प्रेमचंद के बारें में ये कहना कि वे पहले उर्दू में लिखते थे, बाद में हिन्दी में आ गए, यह प्रचारित मत है, यह सत्य नहीं है। प्रेमचंद उर्दू में भी लिखते थे, और हिन्दी में भी लिखते थे। प्रेमचंद बहुत कुछ जो हिन्दी में लिखते थे, उसे स्वयं उर्दू में कर देते थे। जो उर्दू में लिखते थे, उसे हिन्दी में कर देते थे। कुछ को वे स्वयं नहीं करते थे। उनके एक मित्र थे, जब वे कानपुर में थे, उनके फ़तहपुर में एक मित्र थे- इक़बाल बहादुर वर्मा ‘सहज’, बहुत सारे लिप्यांतरण या अनुवाद उन्होंने किये। कुछ अन्य लोगों ने भी किए। 36 में जिस ज़माने में ये रचना प्रेमचंद ने लिखी, उनका जीवन काफ़ी अस्त-व्यस्त था, यात्राएं बहुत कर रहे थे। बनारस में टिककर बैठे नहीं। तो, मुझे नहीं लगता कि प्रेमचंद ने स्वयं इसे अनुदित किया होगा। इसलिए भी नहीं लगता क्योंकि अगर स्वयं हिन्दी में करते तो इतनी गड़बड़ियां न करते, जितनी उसमें हैं। बहुत से शब्दों और वाक्यों के अनुवाद असंगत हैं। कई स्थानों पर अर्थ का अनर्थ कर दिया गया है। कई चीजें छोड़ दी गई हैं, कई चीजें जोड़ दी गई हैं। बहुत सारे अनुवाद अनावश्यक हैं, जिनकी कोई ज़रूरत नहीं थी। जैसे मैं कुछ उदाहरण दूं- असंगत अनुवाद, उर्दू वर्ज़न में है, अच्छा ध्यान दीजिए आप, प्रेमचंद ने उर्दू में ‘माधो’ लिखा है, हिन्दी में ‘माधव’। अरे यार गांव का आदमी है वो, बज्र देहात। गांव में माधव कोई नहीं बोलता, माधो...। उर्दू में चूंकि ‘माधो’ ऐसे लिखा जाता है, उसे आप ‘माधो’ भी पढ़ सकते हैं, ‘माधव’ भी पढ़ सकते हैं। हिन्दी में वो ‘माधव’ हो गया, जबकि है- घीसू और माधो। प्रेमचंद दोनों की प्रवृत्ति के बारे में लिखते हैं- इनका जीवन था वो ‘ज़ाहिदाना अंदाज़’, उर्दू में। जीवनयापन करते थे ये वो ‘ज़ाहिदाना अंदाज़’। हिन्दी में कर दिया है कि ‘आकाशवृत्ति’ अपना पेट पालन करते थे। ‘आकाशवृत्ति’। कहां ‘ज़ाहिदाना अंदाज़’, यानी फ़कीरों का अंदाज, और कहां ‘आकाशवृत्ति’? एक शब्द इस्तेमाल किया उन्होंने- ‘इन्तकाम’। अगर ‘इन्तकाम’ का अनुवाद ही करना है हिन्दी में, तो ‘इन्तकाम’ का होगा ‘प्रतिशोध’। यानी बदला लेना। हिन्दी में मिलेगा आपको ‘दण्ड’। अब ‘इन्तकाम’ का प्रेमचंद ‘दण्ड’ तो नहीं कर सकते। या तो ‘प्रतिशोध’ करते, या ‘बदला’ करते। एक जगह है- ‘इत्तफ़ाकन या अवदन’, इसका मतलब है- या तो ये इत्तिफ़ाक से हुआ या जान-बूझकर हुआ। इसका हिन्दी कहानी में ‘न जाने किस दैवी प्रेरणा से’ कर दिया। एकदम फ़र्क। बहुत थोड़े से उदाहरण मैं बता रहा हूं, पढ़ना है तो मेरा पूरा लेख पढ़ लीजिएगा वर्तमान साहित्य में।
कहीं-कहीं ज़रूरत ही नहीं थी बदलने की, और बदल दिया। जैसे उर्दू में लिखा है- ‘नौजवान’, ‘नौजवान’ क्या हिन्दी वाला नहीं समझेगा? उसको कर दिया हिन्दी में ‘जवान’, ‘नौ’ हटा दिया। क्या ज़रूरत थी भई, नौजवान को जवान करने की? अच्छा, उर्दू में लिखा है- ‘महकती हुई’, पुड़ियों के लिए लिखा है- ‘महकती हुई’। ‘महकती हुई’ बहुत कठिन उर्दू है क्या? हिन्दी में कर दिया- ‘सुवासित’। मुझे ‘सुवासित’ में से कोई खुशबू नहीं आ रही, ‘महकती हुई’ में से तो खुशबू आ रही है। लेकिन ‘महकती हुई’ को ‘सुवासित’ करने की क्या ज़रूरत थी?
ध्यान दीजिए, उर्दू कहानी में, जहां शराब पीते हैं दोनों मिलकर, उसके लिए प्रयोग किया- ‘मैखाना’, अब हिन्दी में, बनारस वालों के पास जो शराब पीने की जगह होती थी- बार, उन्हें ‘मैखाना’ तो नहीं कहा जाता था, या तो ‘ठेका’ कहते थे लोग, या ‘हौळी’ कहते थे, अभी भी वही कहते हैं। लेकिन शायद हरिवंशराय बच्चन का प्रभाव है, क्योंकि 1933 में बच्चन की किताब आ गई थी- मधुशाला । तो हिन्दी कहानी में ‘मैखाना’ की जगह ‘मधुशाला’ हो गया है। ‘ठेका’ या ‘हौळी’ नहीं है, ‘मधुशाला’ है। अब तो ‘मधुशाला’ शब्द देखने को मिल जाता है, शराब की दुकान पे, छोटे शहरों में, कस्बों में, लेकिन उस ज़माने में ‘मधुशाला’ शब्द ठेके के लिए, या शराबघर के लिए शायद ही इस्तेमाल होता होगा। लेकिन हिन्दी कहानी में है ‘मधुशाला’।
अब वहां शराब पी रहे हैं। उर्दू कहानी में, शराब के साथ जो चीज खानी चाहिए वो लिखा हुआ है- शराब के साथ गोश्त, सालन, और चटपटी कलेजियां। अब गोश्त, सालन और चटपटी कलेजियां में क्या दिक्कत थी? हिन्दी कहानी में आके हो गया- चटनी-अचार। शराब के साथ चटनी-अचार।
अब बुधिया जो केरेक्टर है, माधो की पत्नी, उसके बारे में एक वाक्य है प्रेमचंद का। वह इतना मार्मिक वाक्य है, बुधिया के चरित्र को उत्कृष्ठ कोटि का साबित करने वाला वाक्य, जो उर्दू क़फ़न में तो है, हिन्दी क़फ़न में नहीं है। क्यों नहीं है? क्या ज़रूरत थी उस वाक्य को हटाने की? वाक्य मैं पढ़के सुना रहा हूं- ‘पिसाई करके, घास छीलकर वह सेरभर आटे का इंतजाम कर लेती थी’, बहुत सामान्य सा वाक्य है। लेकिन बुधिया के चरित्र को, दोनों की तुलना में देखिए, ये दोनों कुछ काम नहीं कर रहे हैं, और वह स्त्री ‘पिसाई करके, घास छीलकर वह सेरभर आटे का इंतजाम कर लेती थी’, उससे काम चलता था,लेकिन चूंकि अब वह इस लायक नहीं, उसके अंदर अब वो क्षमता नहीं है, प्रसव के दिन करीब आ गए हैं, अब वह काम नहीं कर पा रही है, तो दोनों कामचोर, चोरी करके आलू भूनकर खा रहे हैं। तो, बुधिया के केरेक्टर को हाइलाइट करने वाला यह जो वाक्य है, उर्दू क़फ़न में है, वह हिन्दी क़फ़न में गायब है।
शब्दों का संबंध सिर्फ़ भाषा से नहीं होता, संस्कृति से होता है, सभ्यता से होता है। ‘उर्दू तहज़ीब’, उर्दू भाषी लोग जिस तरह की उर्दू बोलते और समझते थे, उस समय हिन्दी समाज ऐसा नहीं था कि ठीक उसी तरह की हिन्दी को समझता रहा हो। जैसे मान लीजिए उर्दू में वो कहते हैं- ‘अपनी ग़ैर-मुतवक़्क़ा ख़ुशनसीबी पर माधो भी हंसा’। उर्दू भाषी समाज के लिए यह कोई कठिन वाक्य नहीं है। हिन्दी में है- ‘अपने अनपेक्षित सौभाग्य पर माधव भी हंसा। ‘गै़र-मुतवक़क़ा ख़ुशी’- ये उर्दू भाषी समाज के लिए मुश्किल नहीं है, और ये ‘अनपेक्षित सौभाग्य’ आज भी विचित्र है, अगर बाहर आप बोलिए। अगर आप किसी सब्जी की दुकान पर जाएं और कहें- ‘मुझे एक गोभी की आवश्यकता है’, तो ऐसे देखेगा, कि क्या बोल रहा है!अच्छा, प्रेमचंद तो देसी आदमी, देसी भाषा- ‘देशी’ नहीं कह रहा हूं मैं, ‘देसी’, तो ‘देसी’ भाषा का प्रयोग कर रहे थे। हिन्दी में शुद्धीकरण पर बड़ा जोर है। प्रेमचंद ने उर्दू में ‘सादी’ लिखा है, मैरिज के लिए, और हिन्दी कहानी में ‘शादी’ लिखा हुआ है, जबकि उल्टा है- उर्दू में लिखना चाहिए था उनको ‘शादी’। लेकिन प्रेमचंद जानते थे कि ‘शादी’ कोई नहीं बोलता गांव में, सादी-ब्याह। ‘मगर’ एक शब्द है, हिन्दी में ‘मगर’ लिखा हुआ है। अब, बनारस के आसपास ‘मगर’ नहीं बोलते हैं, ‘मुदा’ बोलते हैं। उर्दू में ‘मुदा’ लिखा है प्रेमचंद ने, जो बोलचाल का शब्द है ‘मुदा’ वही लिखा है। हिन्दी में ‘मगर’ लिखा हुआ है। उर्दू में प्रेमचंद ने ‘खुस्स’ लिखा है, और हिन्दी में ‘ख़ुश’।
इस तरह से ये जो कहानी है क़फ़न, पता नहीं किसने अनुवाद किया है, जिसने उसका हिन्दीकरण किया है, और उसको इस छेड़छाड़ की ज़रूरत क्यों महसूस हुई? यह तर्क से परे है।
जैसा कि मैंने बताया कि प्रेमचंद ने हिन्दी और उर्दू, दोनों में लिखा, साथ-साथ। नाम थोड़ा सा, शीर्षक बदलते थे। जैसे शतरंज के खिलाड़ी, उर्दू में ये कहानी मिलेगी आपको शतरंज की बाज़ी नाम से। दूध का दाम, उर्दू में ये कहानी मिलेगी- दूध की कीमत। ये प्रेमचंद के खुद बदले हुए नाम हैं, जो भाषा की संस्कृति को देखते हुए परिवर्तित कर दिए हैं। पंच-परमेश्वर कहानी है, उर्दू में पंचायत। हिंदी की उनकी बड़ी मशहूर कहानी सद्गति, उर्दू में निजात। अच्छा, कुछ कहानियां प्रेमचंद की ऐसी हैं जो हिन्दी में पहले लिखी गईं, बाद में उनको हिन्दी में किया; कुछ कहानियां ऐसी हैं जो उर्दू में पहले लिखी गई, बाद में उन्हें हिन्दी में किया। जैसे उर्दू में उन्होंने एक कहानी लिखी- हज़े-अकबर, ‘हज़’ तीर्थ को कहते हैं, ‘अकबर’ श्रेष्ठ को कहते हैं। ये हिन्दी के पाठकों को समझ में ना आता, इसलिए हिन्दी में उन्होंने शीर्षक रखा- महातीर्थ। हिन्दी में उनकी एक कहानी मिलती है- पिसनहारी का कुंआ, ठाकुर का कुंआ नहीं, उर्दू में ये कहानी मिलती है- चौराहे का कुंआ। और ‘पिसनहारी का कुंआ’, बनारस के पांडेपुर इलाके में. जिसका ‘रंगभूमि’ में चित्रण हुआ है, वहां ये पिसनहारी का कुंआ था। इस तरह से अनेक अंतर आपको प्रेमचंद साहित्य में मिलेंगे।
उपन्यासों में एक उपन्यास उनका ऐसा है जिसका हिन्दीकरण करना बड़ा मुश्किल है। आप जानते हैं कि प्रेमचंद के शुरूआती चार उपन्यास ऐसे हैं जो उर्दू में लिखे गए, अब तो सब हिन्दी में उपलब्ध हैं। एक उपन्यास है उनका-हमखुर्मा व हमसवाब। इसका हिन्दी में नामकरण बहुत मुश्किल है। प्रेमचंद ने भी कोशिश नहीं की। इस उपन्यास की कहानी न जाने प्रेमचंद को क्यों बहुत पसंद थी, इसलिए हिन्दी में उन्होंने इसे दो बार और लिखा। एक प्रेमा और दूसरा प्रतिज्ञा। इन दोनों में वही कहानी है जो हमखुर्मा व हमसवाब में है।
उस ज़माने में दो नाम रखने की परंपरा थी। जैसे उनका एक अन्य उपन्यास है- असरारे-मआबिद उर्फ़ देवस्थान रहस्य । हमख़ुर्मा व हमसवाब के भी उर्फ़ लगाया उन्होंने और लिखा- ‘दो सहेलियों का ब्याह’। उर्दू में हिन्दी में ट्रांसफ़र करते वक़्त प्रेमचंद बहुत सतर्क और बहुत सजग लेखक रहे हैं। वे जानते थे कि उर्दू में कौनसी चीज चल जाएगी, जो हिन्दी में नहीं चलेगी। जैसे हमखुर्मा व हमसवाब में एक जगह एक वाक्य आता है कि ‘उर्दू जबान पर ऐसे ही वक़्त गुस्सा आता है’। उर्दू का पाठक इसको पढ़ेगा तो उसके ऊपर कोई असर नहीं पड़ेगा। लेकिन अगर यही हिन्दी में छप जाए तो क्या होगा? अगर आज भी कोई हिन्दी का लेखक ऐसा लिख दे तो उर्दू वाले तो उसकी हालत खराब कर देंगे। तो, हिन्दी में प्रेमचंद ने लिख दिया कि ‘मुझको रह-रहकर अपने ऊपर क्रोध आता है’। ये जो उपन्यास है, इसमें हिन्दी में 10 पंक्तियां ज्यादा हैं। उर्दू में जहां ये उपन्यास खत्म होता है, हिन्दी में वहीं पर खत्म नहीं होता। उर्दू में अंतिम वाक्य है- ‘प्रेमा ने उस पिस्तौल का गौसा लिया’। चूमा। उपन्यास का अंत। हिन्दी में इसके बाद दस लाइनें और लिखी गईं हैं। और उसके बाद अंतिम वाक्य लिखा- ‘जलसा कराइए, जलसा! यों पीछा न छूटेगा’। उर्दू जबान वाले किस्से की तरह ही इनकी मृतकभोज कहानी में एक सेठ झाबरमल हैं, सुशीला नाम की एक स्त्री को किराये पर कमरा दिये हुए हैं। किराया मांगने जाते हैं तो वो अपनी मजबूरी बताती है, नहीं दे पाती। सेठ झाबरमल सुशीला से कहता है- ‘कोई मुसलमान होता तो उसे चुपके से महीने-महीने दे देती’। अगर हिन्दी में प्रेमचंद ऐसा ही लिख देते तो बबाल हो जाता। हिन्दी में टाल दिया और लिखा- ‘कोई और होता तो महीने के महीने दे देती’। ये परिवर्तन एक जिम्मेदार लेखक होने के सबूत पेश करते हैं। कहीं-कहीं पर उन्होंने नाम बदल दिये हैं। हजे़-अकबर जो कहानी है, वो पूरी तरह से मुस्लिम समाज और संस्कृति का चित्रण करने वाली कहानी है। उसे हिन्दी में ट्रांसफ़र करते वक़्त प्रेमचंद हिन्दी समाज या कहिए हिन्दू समाज और संस्कृति का चित्रण करने वाली कहानी बना देते हैं। तो ज़ाहिर है फ़िर नाम भी बदलेंगे। तो नाम बदला उन्होंने। वहां मुंशी साबिर हुसैन हैं तो यहां मुंशी इन्द्रमणि, वहां मुंशी साबिर हुसैन की पत्नी शाकिरा हैं तो यहां मुंशी इन्द्रमणि की पत्नी सुखदा हैं, वहां बेटा नसीर मियां है तो यहां बेटा रुद्रमणि है। इन्द्रमणि का बेटा तो रुद्रमणि ही होगा ना? नौकरानी तक का नाम बदल दिया। वहां नौकरानी अब्बासी है तो हिन्दी मै कैलाशी है। बदल दिया।एक अंतिम बात और बता दूं आपको कि प्रेमचंद की एक और महत्वपूर्ण कहानी है- पूस की रात । वह कहानी भी उर्दू में अलग है और हिन्दी में अलग है। पूरी तरह से नहीं। हिन्दी कहानी के अंत को लेकर आलोचकों ने कहा कि ये पलायनवादी कहानी है, क्योंकि प्रेमचंद एक किसान से उसकी खेती नष्ट हो जाने पर कहलवाते हैं कि ‘चलो अच्छा हुआ, रात की ठण्ड में यहां सोना तो न पड़ेगा।’ कहानी ख़त्म हो जाती है। लगता है कि यह पलायनवाद है। उसकी खेती नष्ट हो गई और खुशी हो रही है। बंधुओं, वह खुशी नहीं है, वह छ्टपटाहट है, वो दर्द है, वो पीड़ा है। देखा होगा समाज में कि घर में, परिवार में कोई व्यक्ति बहुत बीमार रहता है, बहुत बीमार रहता है, दिन-रात उनके साथ लगे रहना पड़ता है, उनकी गंदगी साफ़ करनी पड़ती है, उठाना-बैठाना पड़ता है। अगर उसकी मृत्यु हो जाती है, तो कहते हैं- अच्छा हुआ। लेकिन क्या ये ‘अच्छा हुआ’ में क्या कोई खुशी है? इसमें खुशी नहीं है। तो, ये कहना कि ‘चलो अच्छा हुआ, रात की ठण्ड में यहां सोना तो न पड़ेगा’, ये कोई खुशी नहीं है। जब हमें कुछ मिल नहीं रहा होता तो उसके नष्ट हो जाने पर किसी प्रकार का भाव जाग्रत नहीं होता। क्योंकि कुछ नहीं मिलता उससे। तो, इस दृष्टि से इस कहानी को देखिए। तब समझ में आएगा कि कहानी में पलायनवाद नहीं है। ये तो हुई एक बात, अब दूसरी बात बताता हूं। कहानी का यह अंत प्रेमचंद को भी खटका होगा। जब उन्होंने इसी कहानी को उर्दू में लिखा तो इसका अंत बदल दिया। अंत बदलने के लिए लगभग 19 पंक्तियां और लिखते हैं। कहानी यहां ख़त्म नहीं होती। वो जब घर आता है लौटकर, तो पत्नी से उसका डायलाग होता है, बातचीत होती है। खेत उजड़ चुका है, दुख भी है और रोष भी। रोष किसके प्रति है? उसके प्रति जिसकी ज़मीन है। ज़मीन का लगान देना पड़ेगा, फसल चौपट हो गई। नष्ट हो गई। संवाद ज़रा सुनिए- ‘मैं लगान न दूंगी’ मुन्नी कहती है। हल्कू का संवाद है- ‘जबरा अभी तक सोया हुआ है’। मुन्नी के वाक्य में और हल्कू के वाक्य में कोई संबंध नहीं। मुन्नी कहती है- ‘सहना से कह दो, खेत जानवर चर गए’। हल्कू कहता है- ‘रात बड़े गजब की सर्दी थी’। मुन्नी के संवाद से कोई लेना-देना नहीं। लेकिन जब मुन्नी झल्लाकर कहती है- ‘तो छोड़ दो खेती’। तो हल्कू कहता है, यह कहानी का अंतिम संवाद है, ‘ किसान का बेटा होकर अब मजूरी न करूंगा, चाहे कितनी दुर्गत हो जाए, खेती का काम न बिगाड़ूंगा’। ये उर्दू कहानी पूस की रात का अंत है। इसलिए दोस्तों, प्रेमचंद को समझने के लिए दोनों आंखों की ज़रूरत है। केवल हिन्दी पाठ से प्रेमचंद को नहीं समझ सकते, केवल उर्दू पाठ से भी प्रेमचंद को नहीं समझ सकते। दोनों पाठों को समानांतर रखके अगर प्रेमचंद का अध्ययन किया जाए, तभी हम प्रेमचंद को भली-भांति समझ सकते हैं। धन्यवाद।
इस तरह से ये जो कहानी है क़फ़न, पता नहीं किसने अनुवाद किया है, जिसने उसका हिन्दीकरण किया है, और उसको इस छेड़छाड़ की ज़रूरत क्यों महसूस हुई? यह तर्क से परे है।
जैसा कि मैंने बताया कि प्रेमचंद ने हिन्दी और उर्दू, दोनों में लिखा, साथ-साथ। नाम थोड़ा सा, शीर्षक बदलते थे। जैसे शतरंज के खिलाड़ी, उर्दू में ये कहानी मिलेगी आपको शतरंज की बाज़ी नाम से। दूध का दाम, उर्दू में ये कहानी मिलेगी- दूध की कीमत। ये प्रेमचंद के खुद बदले हुए नाम हैं, जो भाषा की संस्कृति को देखते हुए परिवर्तित कर दिए हैं। पंच-परमेश्वर कहानी है, उर्दू में पंचायत। हिंदी की उनकी बड़ी मशहूर कहानी सद्गति, उर्दू में निजात। अच्छा, कुछ कहानियां प्रेमचंद की ऐसी हैं जो हिन्दी में पहले लिखी गईं, बाद में उनको हिन्दी में किया; कुछ कहानियां ऐसी हैं जो उर्दू में पहले लिखी गई, बाद में उन्हें हिन्दी में किया। जैसे उर्दू में उन्होंने एक कहानी लिखी- हज़े-अकबर, ‘हज़’ तीर्थ को कहते हैं, ‘अकबर’ श्रेष्ठ को कहते हैं। ये हिन्दी के पाठकों को समझ में ना आता, इसलिए हिन्दी में उन्होंने शीर्षक रखा- महातीर्थ। हिन्दी में उनकी एक कहानी मिलती है- पिसनहारी का कुंआ, ठाकुर का कुंआ नहीं, उर्दू में ये कहानी मिलती है- चौराहे का कुंआ। और ‘पिसनहारी का कुंआ’, बनारस के पांडेपुर इलाके में. जिसका ‘रंगभूमि’ में चित्रण हुआ है, वहां ये पिसनहारी का कुंआ था। इस तरह से अनेक अंतर आपको प्रेमचंद साहित्य में मिलेंगे।
उपन्यासों में एक उपन्यास उनका ऐसा है जिसका हिन्दीकरण करना बड़ा मुश्किल है। आप जानते हैं कि प्रेमचंद के शुरूआती चार उपन्यास ऐसे हैं जो उर्दू में लिखे गए, अब तो सब हिन्दी में उपलब्ध हैं। एक उपन्यास है उनका-हमखुर्मा व हमसवाब। इसका हिन्दी में नामकरण बहुत मुश्किल है। प्रेमचंद ने भी कोशिश नहीं की। इस उपन्यास की कहानी न जाने प्रेमचंद को क्यों बहुत पसंद थी, इसलिए हिन्दी में उन्होंने इसे दो बार और लिखा। एक प्रेमा और दूसरा प्रतिज्ञा। इन दोनों में वही कहानी है जो हमखुर्मा व हमसवाब में है।
उस ज़माने में दो नाम रखने की परंपरा थी। जैसे उनका एक अन्य उपन्यास है- असरारे-मआबिद उर्फ़ देवस्थान रहस्य । हमख़ुर्मा व हमसवाब के भी उर्फ़ लगाया उन्होंने और लिखा- ‘दो सहेलियों का ब्याह’। उर्दू में हिन्दी में ट्रांसफ़र करते वक़्त प्रेमचंद बहुत सतर्क और बहुत सजग लेखक रहे हैं। वे जानते थे कि उर्दू में कौनसी चीज चल जाएगी, जो हिन्दी में नहीं चलेगी। जैसे हमखुर्मा व हमसवाब में एक जगह एक वाक्य आता है कि ‘उर्दू जबान पर ऐसे ही वक़्त गुस्सा आता है’। उर्दू का पाठक इसको पढ़ेगा तो उसके ऊपर कोई असर नहीं पड़ेगा। लेकिन अगर यही हिन्दी में छप जाए तो क्या होगा? अगर आज भी कोई हिन्दी का लेखक ऐसा लिख दे तो उर्दू वाले तो उसकी हालत खराब कर देंगे। तो, हिन्दी में प्रेमचंद ने लिख दिया कि ‘मुझको रह-रहकर अपने ऊपर क्रोध आता है’। ये जो उपन्यास है, इसमें हिन्दी में 10 पंक्तियां ज्यादा हैं। उर्दू में जहां ये उपन्यास खत्म होता है, हिन्दी में वहीं पर खत्म नहीं होता। उर्दू में अंतिम वाक्य है- ‘प्रेमा ने उस पिस्तौल का गौसा लिया’। चूमा। उपन्यास का अंत। हिन्दी में इसके बाद दस लाइनें और लिखी गईं हैं। और उसके बाद अंतिम वाक्य लिखा- ‘जलसा कराइए, जलसा! यों पीछा न छूटेगा’। उर्दू जबान वाले किस्से की तरह ही इनकी मृतकभोज कहानी में एक सेठ झाबरमल हैं, सुशीला नाम की एक स्त्री को किराये पर कमरा दिये हुए हैं। किराया मांगने जाते हैं तो वो अपनी मजबूरी बताती है, नहीं दे पाती। सेठ झाबरमल सुशीला से कहता है- ‘कोई मुसलमान होता तो उसे चुपके से महीने-महीने दे देती’। अगर हिन्दी में प्रेमचंद ऐसा ही लिख देते तो बबाल हो जाता। हिन्दी में टाल दिया और लिखा- ‘कोई और होता तो महीने के महीने दे देती’। ये परिवर्तन एक जिम्मेदार लेखक होने के सबूत पेश करते हैं। कहीं-कहीं पर उन्होंने नाम बदल दिये हैं। हजे़-अकबर जो कहानी है, वो पूरी तरह से मुस्लिम समाज और संस्कृति का चित्रण करने वाली कहानी है। उसे हिन्दी में ट्रांसफ़र करते वक़्त प्रेमचंद हिन्दी समाज या कहिए हिन्दू समाज और संस्कृति का चित्रण करने वाली कहानी बना देते हैं। तो ज़ाहिर है फ़िर नाम भी बदलेंगे। तो नाम बदला उन्होंने। वहां मुंशी साबिर हुसैन हैं तो यहां मुंशी इन्द्रमणि, वहां मुंशी साबिर हुसैन की पत्नी शाकिरा हैं तो यहां मुंशी इन्द्रमणि की पत्नी सुखदा हैं, वहां बेटा नसीर मियां है तो यहां बेटा रुद्रमणि है। इन्द्रमणि का बेटा तो रुद्रमणि ही होगा ना? नौकरानी तक का नाम बदल दिया। वहां नौकरानी अब्बासी है तो हिन्दी मै कैलाशी है। बदल दिया।एक अंतिम बात और बता दूं आपको कि प्रेमचंद की एक और महत्वपूर्ण कहानी है- पूस की रात । वह कहानी भी उर्दू में अलग है और हिन्दी में अलग है। पूरी तरह से नहीं। हिन्दी कहानी के अंत को लेकर आलोचकों ने कहा कि ये पलायनवादी कहानी है, क्योंकि प्रेमचंद एक किसान से उसकी खेती नष्ट हो जाने पर कहलवाते हैं कि ‘चलो अच्छा हुआ, रात की ठण्ड में यहां सोना तो न पड़ेगा।’ कहानी ख़त्म हो जाती है। लगता है कि यह पलायनवाद है। उसकी खेती नष्ट हो गई और खुशी हो रही है। बंधुओं, वह खुशी नहीं है, वह छ्टपटाहट है, वो दर्द है, वो पीड़ा है। देखा होगा समाज में कि घर में, परिवार में कोई व्यक्ति बहुत बीमार रहता है, बहुत बीमार रहता है, दिन-रात उनके साथ लगे रहना पड़ता है, उनकी गंदगी साफ़ करनी पड़ती है, उठाना-बैठाना पड़ता है। अगर उसकी मृत्यु हो जाती है, तो कहते हैं- अच्छा हुआ। लेकिन क्या ये ‘अच्छा हुआ’ में क्या कोई खुशी है? इसमें खुशी नहीं है। तो, ये कहना कि ‘चलो अच्छा हुआ, रात की ठण्ड में यहां सोना तो न पड़ेगा’, ये कोई खुशी नहीं है। जब हमें कुछ मिल नहीं रहा होता तो उसके नष्ट हो जाने पर किसी प्रकार का भाव जाग्रत नहीं होता। क्योंकि कुछ नहीं मिलता उससे। तो, इस दृष्टि से इस कहानी को देखिए। तब समझ में आएगा कि कहानी में पलायनवाद नहीं है। ये तो हुई एक बात, अब दूसरी बात बताता हूं। कहानी का यह अंत प्रेमचंद को भी खटका होगा। जब उन्होंने इसी कहानी को उर्दू में लिखा तो इसका अंत बदल दिया। अंत बदलने के लिए लगभग 19 पंक्तियां और लिखते हैं। कहानी यहां ख़त्म नहीं होती। वो जब घर आता है लौटकर, तो पत्नी से उसका डायलाग होता है, बातचीत होती है। खेत उजड़ चुका है, दुख भी है और रोष भी। रोष किसके प्रति है? उसके प्रति जिसकी ज़मीन है। ज़मीन का लगान देना पड़ेगा, फसल चौपट हो गई। नष्ट हो गई। संवाद ज़रा सुनिए- ‘मैं लगान न दूंगी’ मुन्नी कहती है। हल्कू का संवाद है- ‘जबरा अभी तक सोया हुआ है’। मुन्नी के वाक्य में और हल्कू के वाक्य में कोई संबंध नहीं। मुन्नी कहती है- ‘सहना से कह दो, खेत जानवर चर गए’। हल्कू कहता है- ‘रात बड़े गजब की सर्दी थी’। मुन्नी के संवाद से कोई लेना-देना नहीं। लेकिन जब मुन्नी झल्लाकर कहती है- ‘तो छोड़ दो खेती’। तो हल्कू कहता है, यह कहानी का अंतिम संवाद है, ‘ किसान का बेटा होकर अब मजूरी न करूंगा, चाहे कितनी दुर्गत हो जाए, खेती का काम न बिगाड़ूंगा’। ये उर्दू कहानी पूस की रात का अंत है। इसलिए दोस्तों, प्रेमचंद को समझने के लिए दोनों आंखों की ज़रूरत है। केवल हिन्दी पाठ से प्रेमचंद को नहीं समझ सकते, केवल उर्दू पाठ से भी प्रेमचंद को नहीं समझ सकते। दोनों पाठों को समानांतर रखके अगर प्रेमचंद का अध्ययन किया जाए, तभी हम प्रेमचंद को भली-भांति समझ सकते हैं। धन्यवाद।
टेपांकन व प्रस्तुति- गंगासहाय मीणा
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at 11:48 pm
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