-जितेन्द्र कुमार यादव

राहुल जी आजमगढ़ के रहने वाले थे। भोजपुरी उनकी मातृभाषा थी और अपने जीवन के सबसे ऊर्जावान समय को उन्होंने भोजपुरी समाज की दशा और दिशा सुधारने के लिए लगाया। जन-आन्दोलनों से राहुल जी का लम्बे समय तक वास्ता रहा है। इसलिए यह जरूरी जान पडता है कि यह आन्दोलनधर्मी व्यक्तित्व अपनी मातृभाषा के बारे में क्या सोचता था और आज के समय में उसकी प्रासंगिकता क्या है?
सबसे पहली बात कि राहुल जी भोजपुरी को हिन्दी की बोली नहीं मानते थे। वे उत्तर भारत की सभी बोलियों के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकारते थे। 'हिन्दी लोक-साहित्य' नामक निबंध में राहुल जी ने लिखा- ''हमारे अहिन्दी भाषी भाई समझते हैं कि उत्तर में एक ही हिन्दी भाषा है, बाकी उसी की छोटी-छोटी बोलियाँ हैं। पर मैथिली, अवधी, ब्रजी और मारवाड़ी को कौन बोली कह सकता है, जिनका काव्य साहित्य हमारी हिन्दी से कहीं अधिक पुराना और गुण तथा परिमाण में अधिक नहीं तो कम समृद्ध नहीं है। वस्तुतः वह बोलियाँ नहीं, साहित्यिक भाषाएं हैं।'' साथ ही उन्होंने यह भी लिखा कि - ''किसी भाषा को केवल इसीलिए बोली नहीं कहा जा सकता कि उसका साहित्य लिपिबद्ध नहीं हुआ।''
बावजूद उसके आज भी इन भाषाओं (भोजपुरी, अवधी, ब्रजी आदि) के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जाता। हमें शुरू से ही रटाया जाता है कि हिन्दी ही एक भाषा है और भोजपुरी, अवधी, ब्रजी आदि 16 उसकी बोलियाँ हैं। रामविलास शर्मा की जातीयता की अवधारणा का उद्धरण देकर बताया जाता है कि हिन्दी जातीय भाषा है। यह जातीयता क्या चीज है और यह इस हिन्दी प्रदेश में कैसे लागू होती है, यह बताने की जरूरत न रामविलास जी ने समझी, न उनके अनुयाइयों ने। अगर गौर से देखें तो यह 'जातीय' शब्द बहुत भ्रामक है। इस शब्द से ऐसा आभास होता है कि हिन्दी सम्प्रेषण की भाषा के साथ-साथ संस्कृति की भी भाषा है। लेकिन वास्तविकता यह है कि हिन्दी मात्र सम्प्रेषण की भाषा है। संस्कृति की वास्तविक वाहक हमारी मातृभाषाएं है, जिन्हें बोली का नाम देकर हमेशा दोयम दर्जे पर रखा गया। जिस भाषा में मैं बोल रहा हूँ, वह पढ़े-लिखे मध्यवर्ग और महानगरों की भाषा है। 'जरूरत' की भाषा को संस्कृति की भाषा बताकर एक भ्रामक प्रचार किया गया। 'जातीय भाषा' और 'जातीय संस्कृति' को हवाई कल्पना कर जमीनी हकीकत को भुला दिया गया। राहुल जी मातृभाषाओं और संस्कृतियों के सम्बंध को समझते थे। 1947 में अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन (बम्बई) के मंच से बोलते हुए राहुल जी ने कहा - ''इन भाषाओं (मातृभाषाएं) के साथ भाषा क्षेत्रों की संस्कृति का भी घनिष्ठ संबंध है। वैसे सारे भारतवर्ष की एक संस्कृति है, लेकिन प्रांतों के अनुसार उसमें अवांतर भेद भी है। वैसे ही हमारे हिन्दी के मातृभाषा क्षेत्र में भी संस्कृतियों के कुछ अवांतर भेद हैं। जन-कविता कला, लोकोक्ति आदि के रूप में बहुत भारी निधि इन मातृभाषाओं के भीतर सुरक्षित है, जिसकी भी रक्षा हमें करनी चाहिए और उसके लिए हमें उन्हें उनका उचित स्थान प्रदान करना चाहिए।''
राहुल जी का मानना था कि जिस व्यवस्था में शासन की भाषा और जनता की भाषा में भेद होगा, उस देश में वास्तविक लोकतंत्र कभी आ ही नहीं सकता। राहुल जी भाषाई आधार पर राज्यों के बँटबारे के पक्षधर थे। उनका मत था कि सभी राज्य अपनी-अपनी मातृभाषाओं में प्राथमिक शिक्षा दें और राज्यों का समूचा काम-काज भी उसी भाषा में हो। पूरे मुल्क को कुछ ही वर्षों में शिक्षित करने की योजना थी उनकी। केवल बच्चे ही नहीं वयस्क शिक्षा के बारे में भी राहुल ने उसी समय सोचा था। उनका ही विचार था कि मातृभाषाओं के अलावा अगर हम किसी भी दूसरी भाषा में शिक्षा देते हैं तो पचासों वर्ष के बाद भी हमारी बहुत बडी आबादी निरक्षर और मूढ़ बनी रहेगी। 1947 में दूसरे अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन (गोपालगंज) के मंच से बोलते हुए राहुल जी ने कहा - ''ई लोग के राज तबे नीमन चली, जब लोग हुसियार होई। राजनीति के बात दू चार गो पढुआ जाने, अब ए से काम ना चली। जवना से लोग आपन नफा-नोकसान समझे आ उ बूझे कि दुनिया जहान में का हो रहल बा तवन उपाय करे के पड़ी। एकर मतलब ई बा कि अब लोगवा के मूढ़ रहला से काम ना चली। लोग कइसे सग्यान होई, एकर एके गो उपाय हवे कि सब लोग पढ़े-लिखे जाने। खासी लइके ना, बूढ़ों जवान के अंगुठा के निसान के बान छोड़ावे के परी। अंगरेज के राम रहल त ओकनी के फायदा एही में रहल कि समूचा हिन्दुस्तान के लोग मूढ़ बनल रहे। चोर के अजोरिया रात न लुभावे भावे। लेकिन अपना देश में केहू बेपढ़ल ना रहे। एकर कौन रहता बा। केहू भाई कही कि सबकरा के हिन्दी पढ़ावल जाव। बाकी ई बारह बरिस के रहता ह। जो हिन्दी में सिखावै -पढ़ावै के होई त पचासो बरिस में हमनी के सब लइका परानी पढ़ुआ ना बनब। आएवे हमनी के दसे-पनरह बरिस में समूचा मुलुक के पढा देवे के ह। कइसे होई ई कुलि। ... अपना भाखा में पढ़ल-लिखत कवनो मुसकिल नइखे। खाली ककहरे नू सोखे के परी।'' मातृभाषाओं में शिक्षा न देने का ही यह नतीजा है कि हमारे देश की बहुत बड़ी आबादी अज्ञानता में जीवन जीने के लिए अभिशप्ते है। सवाल यह है कि हम कितने लोगों को अंग्रेजी और हिन्दी सिखा सकते हैं।
राहुल जी के विचार लोक और शिष्ट साहित्य की दूरी को मिटाते हैं। साहित्य और संस्कृति पर एक खास वर्ग के एकाधिकार के विरोधी थे, राहुल जी। 'नईकी दुनिया' (नाटक) की जगरानी भी लेखकों की जमात में शामिल है. 'सारन समाचार' में उसकी लिखी कथा के साथ-साथ उसका फोटो भी प्रकाशित होता है। बटुक पूछता है - ''बोलु इयवा! पुरनकी दुनिया में लिखाड़िन में तोर नाम होइत?'' जगरानी कहती है- ''लिखाड़ी! जिनगी भर रमायन पढ़त रहि गइनी, अच्छर लिखहू ना सिखले रहनी। इ त नइकी दुनिया में जब अपनी बोली के केताब आ अखबार छपे लागल, तब नु हमरौ चाटक खुलल हा?'' वास्तव में भाषा के बैरियर के कारण हम बहुत सारी संवेदनाओं से अनभिज्ञ रह जाते हैं। अगर इन लोक भाषाओं और लोक साहित्य को समुचित सम्मान मिले तो साहित्य में एक भाषाई वर्ग का एकाधिकार टूटेगा। जीवन संग्राम में जूझ रहे किसान-मजदूर जब स्वयं अपना साहित्य लिखेंगे, तो वह दूसरे प्रकार का होगा।
हमारी भाषा नीति के कारण अभी भी इस देश की बहुत बड़ी आबादी दोयम दर्जे की नागरिक बनी हुई है। उसे समझ में ही नहीं आ रहा है कि वह क्या करें। समूचे ज्ञान-विज्ञान पर अंग्रेजीदां वर्ग का कब्जा है। हमारे देश का समूचा शोध और उच्च अध्ययन अंग्रेजी में हो रहा है जो गिने-चुने लोगों के हाथ में है और उन्हीं के लिए है। बम्बई वाले भाषण में राहुल जी ने कहा - (कुछ लोग) ''अब भी अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा बनाये रखने का आग्रह करते हैं। यह भी दासता के अभिशाप का अवशेष है।'' हिन्दी को सम्पर्क भाषा के रूप में राहुल जी देखते थे। उसी अधिवेशन ने उन्होंने कहा - ''अपने क्षेत्र में वहाँ की भाषा ही सर्वे-सर्वा होगी। हिन्दी का काम तो वहाँ ही पडेगा, जहाँ एक प्रांत का दूसरे प्रान्त से सम्बंध होगा।''
राहुल जी ने इन सभी बातों को अपने व्यवहार में भी अपनाया। अपने छपरा प्रवास के राजनीतिक जीवन के बारे में बताते हुए राहुल जी ने लिखा - ''मुझे याद नहीं कि अपने राजनीतिक जीवन के समय छपरा में मैंने कभी भोजपुरी छोड़कर हिन्दी में भाषण दिया हो।''
दरभंगा में कौंसिल चुनाव प्रचार का जिक्र करते हुए 'मेरी जीवन यात्रा' में राहुल जी ने लिखा है कि ''मैंने छपरा की बोली में भाषण शुरू किया, दो ही मिनट में किसानों के सिर हिलने लगे, फिर तो सभापति ने उज्र पेश कर हिन्दी में भाषण देने के लिए जोर दिया, कि लोग छपरा की बोली नहीं समझते। मैंने जनता से पूछा- यदि आप लोग मेरी भाषा नहीं समझते तो क्या करूँगा, उर्दू-फारसी में बोलने की कोशिश करूँगा। जनता ने एक स्वर में कहा - नहीं, हम आपकी भाषा खूब समझते हैं। जिसमें हम समझ न पावें, इसके लिए यह चालाकी चली जा रही है।''
मातृभाषाओं के आग्रही राहुल को ऐसा नहीं था कि दूसरी भाषाएं नहीं आती थीं। वे दुनिया की बहुत सारी भाषाओं को जानते थे। जहाँ गये, वही की भाषा को अपना बना लिया। कहा जाता है कि उन्हें लगभग 35-36 भाषाओं का ज्ञान था। लेकिन मातृभाषाओं का सवाल मात्र राहुल का नहीं, पूरी जनता का सवाल था। उन्हें पता था कि मातृभाषाओं के ज्ञान के बिना व्यक्ति अपने सामाजिक परिवेश और प्रकृति के प्रति असंवेदनशील हो जाएगा।
आज जब सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का खतरा मँडरा रहा है। वैश्वीकरण की बाढ़ में हमारी भाषा-संस्कृति बहती चली जा रही है। बाजार अपना तर्क देकर छोटी-छोटी भाषाओं और संस्कृतियों को नष्ट करने पर तुला हुआ है। ऐसे समय में राहुल का याद आना लाजमी है। लोक भाषा और लोक-संस्कृति के लिए जब भी कोई आवाज उठेगी, तब राहुल जरूर याद आएंगे। इस समय बुद्धिजीवी वर्ग का यह दायित्व है कि वह खुद को संघर्षरत जनता के साथ जोड़े। जनता की भाषा में जनता के लिए साहित्य सृजित करे। जनता के दुःख, दर्द का हमसफर बने। यही राहुल जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।


संपर्क- 50, साबरमती छात्रावास, जेएनयू, नई दिल्लीह. jite.jnu@gmail.com