सरकार (लघुकथा)  

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सरकार (लघुकथा)

-गंगा सहाय मीणा

मैं 14-15 साल का हो गया था लेकिन मैंने कभी सरकार को नहीं देखा. मैं किताबों-अखबारों में पढकर और लोगों से सुन-सुनकर तंग आ गया था कि सरकार ये कर रही है, वो कर रही है, सरकार ने ये कहा, वो कहा. आखिर सरकार है कौन, कैसी दिखती है? बोतल से निकले जिन/भूत की तरह तो नहीं? ये सवाल मुझे उन दिनों बहुत परेशान करता था.

अंततः एक दिन मेरा भाग्य जागा और मुझे सरकार के दर्शन हो गए. मैं अपने पिताजी के साथ पास के शहर गया, वहां मुझे सरकार एक तिराहे पर खडी दिखी. सरकार एक जीप की शक्ल में थी, जिसमें 3-4 पुलिसवाले थे. जीप पर सरकार का नाम लिखा हुआ था- राजस्थान सरकार. सरकार को जीप के रूप में देखकर पहले तो आश्‍चर्य हुआ लेकिन बाद में सोच लिया कि लोग कहते हैं कि सरकार सर्वशक्तिशाली है, इसलिए बहुरूपिया भी होगी. अपनी आवश्यतकतानुसार रूप बदल लेती होगी.
सरकार तिराहे पर जीप की शक्ल में आकर रुकी. उसे देखते ही आसपास के माहौल में सक्रियता आ गई. पुलिस वाले भी जीप में से उतर कर सक्रिय हो गए. वहां खडे ऑटो रिक्शों की हवा निकालने लगे और रिक्शा चालकों को गाली और थप्पड मारने लगे. रिक्शेवाले हवारहित ट्यूब वाले रिक्शों को भी लेकर भी दौड पडे.
सरकार को मैंने पहली बार देखा था. सारी घटना का कुछ कार्य-कारण समझ में नहीं आया. लेकिन उसे देखकर मुझे भी डर लगने लगा


-जितेन्द्र कुमार यादव

राहुल जी आजमगढ़ के रहने वाले थे। भोजपुरी उनकी मातृभाषा थी और अपने जीवन के सबसे ऊर्जावान समय को उन्होंने भोजपुरी समाज की दशा और दिशा सुधारने के लिए लगाया। जन-आन्दोलनों से राहुल जी का लम्बे समय तक वास्ता रहा है। इसलिए यह जरूरी जान पडता है कि यह आन्दोलनधर्मी व्यक्तित्व अपनी मातृभाषा के बारे में क्या सोचता था और आज के समय में उसकी प्रासंगिकता क्या है?
सबसे पहली बात कि राहुल जी भोजपुरी को हिन्दी की बोली नहीं मानते थे। वे उत्तर भारत की सभी बोलियों के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकारते थे। 'हिन्दी लोक-साहित्य' नामक निबंध में राहुल जी ने लिखा- ''हमारे अहिन्दी भाषी भाई समझते हैं कि उत्तर में एक ही हिन्दी भाषा है, बाकी उसी की छोटी-छोटी बोलियाँ हैं। पर मैथिली, अवधी, ब्रजी और मारवाड़ी को कौन बोली कह सकता है, जिनका काव्य साहित्य हमारी हिन्दी से कहीं अधिक पुराना और गुण तथा परिमाण में अधिक नहीं तो कम समृद्ध नहीं है। वस्तुतः वह बोलियाँ नहीं, साहित्यिक भाषाएं हैं।'' साथ ही उन्होंने यह भी लिखा कि - ''किसी भाषा को केवल इसीलिए बोली नहीं कहा जा सकता कि उसका साहित्य लिपिबद्ध नहीं हुआ।''
बावजूद उसके आज भी इन भाषाओं (भोजपुरी, अवधी, ब्रजी आदि) के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जाता। हमें शुरू से ही रटाया जाता है कि हिन्दी ही एक भाषा है और भोजपुरी, अवधी, ब्रजी आदि 16 उसकी बोलियाँ हैं। रामविलास शर्मा की जातीयता की अवधारणा का उद्धरण देकर बताया जाता है कि हिन्दी जातीय भाषा है। यह जातीयता क्या चीज है और यह इस हिन्दी प्रदेश में कैसे लागू होती है, यह बताने की जरूरत न रामविलास जी ने समझी, न उनके अनुयाइयों ने। अगर गौर से देखें तो यह 'जातीय' शब्द बहुत भ्रामक है। इस शब्द से ऐसा आभास होता है कि हिन्दी सम्प्रेषण की भाषा के साथ-साथ संस्कृति की भी भाषा है। लेकिन वास्तविकता यह है कि हिन्दी मात्र सम्प्रेषण की भाषा है। संस्कृति की वास्तविक वाहक हमारी मातृभाषाएं है, जिन्हें बोली का नाम देकर हमेशा दोयम दर्जे पर रखा गया। जिस भाषा में मैं बोल रहा हूँ, वह पढ़े-लिखे मध्यवर्ग और महानगरों की भाषा है। 'जरूरत' की भाषा को संस्कृति की भाषा बताकर एक भ्रामक प्रचार किया गया। 'जातीय भाषा' और 'जातीय संस्कृति' को हवाई कल्पना कर जमीनी हकीकत को भुला दिया गया। राहुल जी मातृभाषाओं और संस्कृतियों के सम्बंध को समझते थे। 1947 में अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन (बम्बई) के मंच से बोलते हुए राहुल जी ने कहा - ''इन भाषाओं (मातृभाषाएं) के साथ भाषा क्षेत्रों की संस्कृति का भी घनिष्ठ संबंध है। वैसे सारे भारतवर्ष की एक संस्कृति है, लेकिन प्रांतों के अनुसार उसमें अवांतर भेद भी है। वैसे ही हमारे हिन्दी के मातृभाषा क्षेत्र में भी संस्कृतियों के कुछ अवांतर भेद हैं। जन-कविता कला, लोकोक्ति आदि के रूप में बहुत भारी निधि इन मातृभाषाओं के भीतर सुरक्षित है, जिसकी भी रक्षा हमें करनी चाहिए और उसके लिए हमें उन्हें उनका उचित स्थान प्रदान करना चाहिए।''
राहुल जी का मानना था कि जिस व्यवस्था में शासन की भाषा और जनता की भाषा में भेद होगा, उस देश में वास्तविक लोकतंत्र कभी आ ही नहीं सकता। राहुल जी भाषाई आधार पर राज्यों के बँटबारे के पक्षधर थे। उनका मत था कि सभी राज्य अपनी-अपनी मातृभाषाओं में प्राथमिक शिक्षा दें और राज्यों का समूचा काम-काज भी उसी भाषा में हो। पूरे मुल्क को कुछ ही वर्षों में शिक्षित करने की योजना थी उनकी। केवल बच्चे ही नहीं वयस्क शिक्षा के बारे में भी राहुल ने उसी समय सोचा था। उनका ही विचार था कि मातृभाषाओं के अलावा अगर हम किसी भी दूसरी भाषा में शिक्षा देते हैं तो पचासों वर्ष के बाद भी हमारी बहुत बडी आबादी निरक्षर और मूढ़ बनी रहेगी। 1947 में दूसरे अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन (गोपालगंज) के मंच से बोलते हुए राहुल जी ने कहा - ''ई लोग के राज तबे नीमन चली, जब लोग हुसियार होई। राजनीति के बात दू चार गो पढुआ जाने, अब ए से काम ना चली। जवना से लोग आपन नफा-नोकसान समझे आ उ बूझे कि दुनिया जहान में का हो रहल बा तवन उपाय करे के पड़ी। एकर मतलब ई बा कि अब लोगवा के मूढ़ रहला से काम ना चली। लोग कइसे सग्यान होई, एकर एके गो उपाय हवे कि सब लोग पढ़े-लिखे जाने। खासी लइके ना, बूढ़ों जवान के अंगुठा के निसान के बान छोड़ावे के परी। अंगरेज के राम रहल त ओकनी के फायदा एही में रहल कि समूचा हिन्दुस्तान के लोग मूढ़ बनल रहे। चोर के अजोरिया रात न लुभावे भावे। लेकिन अपना देश में केहू बेपढ़ल ना रहे। एकर कौन रहता बा। केहू भाई कही कि सबकरा के हिन्दी पढ़ावल जाव। बाकी ई बारह बरिस के रहता ह। जो हिन्दी में सिखावै -पढ़ावै के होई त पचासो बरिस में हमनी के सब लइका परानी पढ़ुआ ना बनब। आएवे हमनी के दसे-पनरह बरिस में समूचा मुलुक के पढा देवे के ह। कइसे होई ई कुलि। ... अपना भाखा में पढ़ल-लिखत कवनो मुसकिल नइखे। खाली ककहरे नू सोखे के परी।'' मातृभाषाओं में शिक्षा न देने का ही यह नतीजा है कि हमारे देश की बहुत बड़ी आबादी अज्ञानता में जीवन जीने के लिए अभिशप्ते है। सवाल यह है कि हम कितने लोगों को अंग्रेजी और हिन्दी सिखा सकते हैं।
राहुल जी के विचार लोक और शिष्ट साहित्य की दूरी को मिटाते हैं। साहित्य और संस्कृति पर एक खास वर्ग के एकाधिकार के विरोधी थे, राहुल जी। 'नईकी दुनिया' (नाटक) की जगरानी भी लेखकों की जमात में शामिल है. 'सारन समाचार' में उसकी लिखी कथा के साथ-साथ उसका फोटो भी प्रकाशित होता है। बटुक पूछता है - ''बोलु इयवा! पुरनकी दुनिया में लिखाड़िन में तोर नाम होइत?'' जगरानी कहती है- ''लिखाड़ी! जिनगी भर रमायन पढ़त रहि गइनी, अच्छर लिखहू ना सिखले रहनी। इ त नइकी दुनिया में जब अपनी बोली के केताब आ अखबार छपे लागल, तब नु हमरौ चाटक खुलल हा?'' वास्तव में भाषा के बैरियर के कारण हम बहुत सारी संवेदनाओं से अनभिज्ञ रह जाते हैं। अगर इन लोक भाषाओं और लोक साहित्य को समुचित सम्मान मिले तो साहित्य में एक भाषाई वर्ग का एकाधिकार टूटेगा। जीवन संग्राम में जूझ रहे किसान-मजदूर जब स्वयं अपना साहित्य लिखेंगे, तो वह दूसरे प्रकार का होगा।
हमारी भाषा नीति के कारण अभी भी इस देश की बहुत बड़ी आबादी दोयम दर्जे की नागरिक बनी हुई है। उसे समझ में ही नहीं आ रहा है कि वह क्या करें। समूचे ज्ञान-विज्ञान पर अंग्रेजीदां वर्ग का कब्जा है। हमारे देश का समूचा शोध और उच्च अध्ययन अंग्रेजी में हो रहा है जो गिने-चुने लोगों के हाथ में है और उन्हीं के लिए है। बम्बई वाले भाषण में राहुल जी ने कहा - (कुछ लोग) ''अब भी अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा बनाये रखने का आग्रह करते हैं। यह भी दासता के अभिशाप का अवशेष है।'' हिन्दी को सम्पर्क भाषा के रूप में राहुल जी देखते थे। उसी अधिवेशन ने उन्होंने कहा - ''अपने क्षेत्र में वहाँ की भाषा ही सर्वे-सर्वा होगी। हिन्दी का काम तो वहाँ ही पडेगा, जहाँ एक प्रांत का दूसरे प्रान्त से सम्बंध होगा।''
राहुल जी ने इन सभी बातों को अपने व्यवहार में भी अपनाया। अपने छपरा प्रवास के राजनीतिक जीवन के बारे में बताते हुए राहुल जी ने लिखा - ''मुझे याद नहीं कि अपने राजनीतिक जीवन के समय छपरा में मैंने कभी भोजपुरी छोड़कर हिन्दी में भाषण दिया हो।''
दरभंगा में कौंसिल चुनाव प्रचार का जिक्र करते हुए 'मेरी जीवन यात्रा' में राहुल जी ने लिखा है कि ''मैंने छपरा की बोली में भाषण शुरू किया, दो ही मिनट में किसानों के सिर हिलने लगे, फिर तो सभापति ने उज्र पेश कर हिन्दी में भाषण देने के लिए जोर दिया, कि लोग छपरा की बोली नहीं समझते। मैंने जनता से पूछा- यदि आप लोग मेरी भाषा नहीं समझते तो क्या करूँगा, उर्दू-फारसी में बोलने की कोशिश करूँगा। जनता ने एक स्वर में कहा - नहीं, हम आपकी भाषा खूब समझते हैं। जिसमें हम समझ न पावें, इसके लिए यह चालाकी चली जा रही है।''
मातृभाषाओं के आग्रही राहुल को ऐसा नहीं था कि दूसरी भाषाएं नहीं आती थीं। वे दुनिया की बहुत सारी भाषाओं को जानते थे। जहाँ गये, वही की भाषा को अपना बना लिया। कहा जाता है कि उन्हें लगभग 35-36 भाषाओं का ज्ञान था। लेकिन मातृभाषाओं का सवाल मात्र राहुल का नहीं, पूरी जनता का सवाल था। उन्हें पता था कि मातृभाषाओं के ज्ञान के बिना व्यक्ति अपने सामाजिक परिवेश और प्रकृति के प्रति असंवेदनशील हो जाएगा।
आज जब सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का खतरा मँडरा रहा है। वैश्वीकरण की बाढ़ में हमारी भाषा-संस्कृति बहती चली जा रही है। बाजार अपना तर्क देकर छोटी-छोटी भाषाओं और संस्कृतियों को नष्ट करने पर तुला हुआ है। ऐसे समय में राहुल का याद आना लाजमी है। लोक भाषा और लोक-संस्कृति के लिए जब भी कोई आवाज उठेगी, तब राहुल जरूर याद आएंगे। इस समय बुद्धिजीवी वर्ग का यह दायित्व है कि वह खुद को संघर्षरत जनता के साथ जोड़े। जनता की भाषा में जनता के लिए साहित्य सृजित करे। जनता के दुःख, दर्द का हमसफर बने। यही राहुल जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।


संपर्क- 50, साबरमती छात्रावास, जेएनयू, नई दिल्लीह. jite.jnu@gmail.com


के बाद हिंदी कथा साहित्य में आम आदमी के जीवन को जगह देने और ग्रामीण जीवन को पुनर्स्‍थापित करने वाले महत्वपूर्ण कथाकार मार्कण्डेय जी नहीं रहे। उनका जन्‍म उत्तर प्रदेश में जौनपुर जिले के बराई गांव में दो मई 1930 को हुआ. जनवादी लेखक संघ के संस्थापकों में से एक मार्कण्‍डेय जी ने 1965 में 'माया' पत्रिका के साहित्य विशेषांक का संपादन किया था, जो हिन्‍दी कहानी के लिए मील का पत्‍थर साबित हुआ. इसके बाद उन्‍होंने 1969 से साहित्यिक पत्रिका 'कथा' का संपादन शुरू किया। इसके अभी तक 14 अंक ही निकल पाए हैं। साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में इस पत्रिका का सम्‍मानित स्‍थान है। अग्निबीज, सेमल के फूल(उपन्यास), पान फूल, महुवे का पेड़, हंसा जाए अकेला, सहज और शुभ, भूदान, माही, बीच के लोग (कहानी संग्रह), सपने तुम्हारे थे (कविता संग्रह), कहानी की बात (आलोचनात्मक कृति), पत्थर और परछाइयां (एकांकी संग्रह) आदि उनकी महत्वपूर्ण कृतियां हैं।
हिन्‍दी कथा साहित्‍य के इस शिखर पुरूष को हार्दिक श्रृद्धांजलि.


बाबासाहब अम्‍बेडकर और महात्‍मा गांधी सिर्फ दो व्‍यक्ति नहीं, दो 'स्‍कूल' हैं, दो वैचारिक केन्‍द्र हैं, दो संस्‍थाएं हैं। दोनों आधुनिक भारत के सर्वाधिक विवादास्‍पद चरित्रों में हैं। चूंकि दोनों लीक से हटकर चले, इसलिए उन पर उनके समय से लेकर आज तक सवाल उठाए जाते रहे हैं। दोनों की मंजिल एक-दूसरे से जितनी मिलती थी, रास्‍ते उतने ही जुदा थे। दोनों के संदर्भ में सर्वाधिक दुखद यह है कि दोनों के अनुयायियों ने दो ऐसे विशाल खेमे बना लिये हैं जो आपस में संवाद की कोई जरूरत नहीं समझते। अम्‍बेडकरवादियों के लिए गांधी दलितविरोधी हैं तो गांधीवादियों के लिए अम्‍बेडकर देशद्रोही। गांधीवादियों से अम्‍बेडकर को पढने की क्‍या अपेक्षा की जाए, वे गांधी को भी नहीं पढना चाहते। कुछ ऐसी ही स्थिति अंबेडकरवादियों की है। इसका परिणाम यह हुआ कि अंबेडकर और गांधी के मूल्‍य और उनका संघर्ष कहीं पीछे छूट गया है।

ऐसे समय में अंबेडकर और गांधी में संवाद की बेहद जरूरत है। इसी जरूरत को पूरा करने की दिशा में एक सार्थक प्रयास है अस्मिता थियेटर की नाट्य प्रस्‍तुति 'अंबेडकर और गांधी'। नाटक का प्रदर्शन 'अस्मिता थियेटर' के 18 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्‍य में चल रहे समारोहों के क्रम में 20 फरवरी की शाम दिल्‍ली के युरेका (सिंधिया हाउस) में किया गया। यह नाटक हमें अंबेडकर और गांधी के वर्ण, जाति और धर्म विषयक विचारों से परिचित कराता है। नाटक की शुरूआत अंबेडकर के एक महत्‍वपूर्ण कथन से होती है जिसमें वे भारत में शोषण जारी रखने के लिए अंग्रेजी सरकार की आलोचना करते हैं। संभवतः यह नाटक के लेखक की ओर से अंबेडकर को देशद्रोही कहने वालों के लिए जवाब है। नाटक एक तरफ डा. अंबेडकर की विचारधारा के निर्माण की प्रक्रिया और उससे उपजी संघर्ष की चेतना से परिचित कराता है, दूसरी तरफ 'जनता' द्वारा उनके विचारों को समझ न पाने की वजह से उपजी उनकी चिंता को भी जाहिर करता है।

पूरा नाटक अंबेडकर और गांधी के बीच लगातार संवाद के माध्‍यम से असहमति के बिंदुओं और उनके बीच सहमति के तत्‍वों की तलाश करता दिखता है। कांग्रेस और गांधी के लिए 'अस्‍पृश्‍यों की मुक्ति' एक अंदरूनी समस्‍या थी जबकि अंबेडकर के लिए सर्वाधिक अहम समस्‍या। जमींदारी प्रथा की तरह जाति प्रथा और अस्‍पृश्‍यता का समाधान गांधी हृदय परिवर्तन में खोजते थे। वे वर्णाश्रम को बनाये रखते हुए अस्‍पृश्‍यता खत्‍म करने के पक्षधर थे जबकि अंबेडकर वर्ण और जाति को ही अस्‍पृश्‍यता की जड मानते हुए इनका खात्‍मा जरूरी समझते थे। गांधी के 'दयाभाव' के बरक्‍स अंबेडकर अस्‍पृश्‍यों के लिए अधिकारों की मांग करते हैं।

पूना समझौते से पूर्व दोनों के मतभेद चरम पर थे। पूरे घटनाक्रम को नाटक दर्शकों के समक्ष जीवंत कर देता है। गांधी के अनशन ने अंबेडकर लिए द्वंद्व पैदा कर दिया। एक तरफ दलितों के लिए अधिकारों की लडाई का प्रश्‍न था, दूसरी तरफ गांधी का जीवन। यहां नाट्य-लेखक राजेश कुमार ने एक दिलचस्‍प प्रसंग सृजित किया है। अंबेडकर की गृहिणी पत्‍नी रमाबाई उन्‍हें इस द्वंद्व से मुक्ति दिलाने में मदद करती हैं। रमाबाई कहती हैं, ''सिद्धांत जान लेने के लिए नहीं, जान बचाने के लिए होते हैं...। आज तक महात्‍मा, लोगों की जान बचाते आए हैं, आप तो महात्‍मा की जान बचाने जा रहे हैं।'' अंबेडकर का द्वंद्व समाप्‍त हो जाता है और वे गांधी से मिलने का फैसला करते हैं।

नाटक में रमाबाई से जुडा एक और प्रसंग है। रमाबाई गणेशोत्‍सव देखने जाना चाहती हैं, अम्‍बेडकर उन्‍हें रोक लेते हैं। फिर वे रमा के प्रति अपने व्‍यवहार की आत्‍मालोचना करते हैं। शिल्‍पी मरवाहा ने रमा की भूमिका में अपने बेहतर अभिनय से इस दृश्‍य को और सजीव बना दिया है।

पूरा नाटक अंबेडकर और गांधी के संवाद पर केन्द्रित है। इसी संवाद से दोनों के विचार, सहमतियां-असहमतियां प्रकट होती हैं। अंबेडकर इसी संवाद में भारतीय धर्म, परंपरा और संस्‍कृति की तथाकथित महानता की कडी आलोचना कर उस पर प्रश्‍न चिन्‍ह लगाते हैं। सवर्णों द्वारा अस्‍पृश्‍यों की मुक्ति के बारे में उनका निष्‍कर्ष है- जिसने भोगा है उसकी पीडा वही समझ सकता है। यह निष्‍कर्ष अंबेडकर का है या नाटककार का- यह शोध का विषय है। इस पर शोध इसलिए भी जरूरी है क्‍योंकि यह समकालीन हिन्‍दी दलित विमर्श की सैद्धांतिकी का भी एक महत्‍वपूर्ण प्रश्‍न है।

नाटक का महत्‍व इस दृष्टि से भी है कि यह एक बहुत बडे ऐतिहासिक सत्‍य का उद्घाटन करता है, वह है- तमाम मतभेदों के बावजूद अंबेडकर और गांधी एक-दूसरे से घृणा नहीं करते थे। गांधी की हत्‍या से अंबेडकर आहत होते हैं, वहीं दूसरी तरफ गांधी की इच्‍छा है कि अगर मेरा दुवारा जन्‍म हो तो महाशूद्र के रूप में हो। दोनों के मन में एक-दूसरे को अपनी बात न समझा पाने की कसक है। नाटक के अंत में अंबेडकर अपने इस कथन से दर्शकों को एक जिम्‍मेदारी सौंप जाते हैं- 'अस्‍पृश्‍यता के सवाल पर हम अपने-अपने ढंग से लड रहे थे, गांधीजी संवाद अधूरा छोडकर चले गए'। अंबेडकरवादियों और गांधीवादियों को अपने-अपने खेमों से निकलकर इस संवाद को जारी रखने की जरूरत है। इस संवाद के अभाव का ही परिणाम है कि आरक्षण आदि मसलों पर अंबेडकरवादी और गांधीवादी कोई सहमति बनाने की बजाय उग्र हो जाते हैं। आज भी दलितों की मुक्ति से हम कोसों दूर हैं।


इस नाटक का एक और महत्‍व है- अंबेडकर और गांधी के क्रमशः विकसित होते चरित्र को रेखांकित करना। 1947 के गांधी वे नहीं हैं जो पूना पैक्‍ट के पहले थे। नाटक अंबेडकर की विचारधारा के निर्माण की प्रक्रिया को जितने बेहतर ढंग से प्रस्‍तुत करता है, उतना गांधी की विचारधारा के निर्माण को नहीं समझा पाता- यह नाटककार की एक सीमा कही जा सकती है। खास बात यह है कि नाटक अंबेडकर और गांधी को 'मसीहा' छवि से निकालकर मनुष्‍य के रूप में प्रस्‍तुत करता है- ऐसे मनुष्‍य जिनके कुछ अंतर्विरोध भी हैं।

संवाद केन्द्रित व विचारप्रधान होते हुए नाटक कहीं ऊब पैदा नहीं करता। इसकी वजह राजेश कुमार के सफल लेखन, अरविन्‍द गौड के सफल निर्देशन और कलाकारों के सफल अभिनय के अलावा दृश्‍यों के बीच में डाले गए समूह गीत भी हैं। 'हम लडेंगे साथी...', 'रुके ना जो, झुके ना जो...', 'वैष्‍णव जन तो तेने कहिए...', 'सबसे खतरनाक होता है...', 'उठ जाग मुसाफिर भोर भई...', 'तू जिंदा है, तू जिंदगी की जीत में यकीन कर...', 'सूनी राहों पर कोई कब तक चले...' आदि समूह गीत इसमें शामिल किये गए हैं और संगीता गौड ने नाटक का संगीत-निर्देशन किया है। गीतों का चयन सराहनीय है लेकिन कुछ गीतों की गायन शैली असहजता भी पैदा करती है।

अंबेडकर और गांधी का सफल किरदार क्रमशः बजरंग बली सिंह और वीरेन बसोया ने निभाया है। वीरेन बसोया की आवाज की तेजी गांधी के किरदार से कभी-कभी उन्‍हें दूर भी कर देती है. राज शर्मा, सौरभ पाल, मलय गर्ग, पंकज राज यादव, शिव चौहान, पूजा प्रधान, पंकज दत्‍ता, तोषम आचार्य, दिशा अरोडा, सवेरी गौड, काकोली गौड, राहुल खन्‍ना आदि का अभिनय भी सराहनीय था। नाटक के प्रदर्शन के बाद उस पर संवाद का आयोजन भी किया गया जिसमें दर्शकों ने अपनी प्रतिक्रियाएं व्‍यक्‍त करते हुए अपनी जिज्ञासाएं नाटक के निर्देशक अरविन्‍द गौड के समक्ष रखी।




संपर्क- भारतीय भाषा केन्‍द्र, जेएनयू, नई दिल्‍ली-67