सोमवार, 30 मार्च। भारतीय भाषा केन्द्र (CIL), जेएनयू की ओर से ‘आज का समय और प्रेमचंद’ विषय पर व्याख्यान का आयोजन किया गया। मुख्य वक्ता के तौर पर बोलते हुए प्रो. रामबक्ष ने प्रेमचंद साहित्य के कई विचारणीय मुद्दों को सामने रखा।
व्याख्यान की शुरूआत करते हुए उन्होंने बताया कि प्रेमचंद पर सोचने-विचारने वालों के दो प्रमुख वर्ग हैं- पहले वर्ग में प्रेमचंद का अध्ययन और शोध करने वाले विद्यार्थी हैं तो दूसरा वर्ग उन साहित्यकारों-आलोचकों का है जो प्रेमचंद पर टिप्पणियाँ करते हैं। पहला वर्ग प्रेमचंद के साहित्य को जहाँ समझने का प्रयास करता है, वहीं दूसरा वर्ग उनके साहित्य को विभिन्न आयामों से विश्लेषित करने का प्रयास करता है। प्रो. रामबक्ष ने प्रेमचंद जैसे आम जन के लेखक को ‘सेलिब्रिटी’ बनाने के प्रयास को समझने की जरूरत पर बल दिया। उनके अनुसार सेलिब्रिटी लेखक का लेखन आदर्श और आस्था से जुड़कर सवालों और जिज्ञासाओं का मुखापेक्षी नहीं रहता। सेलिब्रिटी लेखक ‘मीडियाकर’ बन जाता है और कुछ विशेष रुचि के अनुसार बोलने लगता है जबकि प्रेमचंद ने कहा था ‘साहित्य जनता की अभिरुचि का गुलाम नहीं होता’।
प्रो. रामबक्ष ने आगे कहा कि प्रेमचंद को पढ़ते हुए हम उनके समय की पूरी परंपरा को पढ़ते हैं। उस समय के समाज, संस्कृति, लोक-व्यवहार आदि सबकुछ उसमें समाहित होता है। परन्तु आज प्रेमचंद के अध्ययन की मूल समस्या है कि हम प्रेमचंद के पाठ तक आग्रह-मुक्त होकर नहीं पहुँच पाते। प्रेमचंद के समय के लोगों ने उनको जिस प्रकार से पढ़ा-समझा था, आज हम प्रेमचंद के विभिन्न आलोचकों, जीवनीकारों की वजह से उसी प्रकार से नहीं पढ़-समझ पाते। उनके द्वारा स्थापित विचार इस सहज पाठ में बाधा उत्पन्न करते हैं। प्रो. रामबक्ष ने आगे बताया कि आज का समय यथा स्थितिवाद का समय प्रतीत होता है। आज समाज में परिवर्तन की संभावना बहुत क्षीण प्रतीत होती है। ऐसे में प्रेमचंद का लेखन एक आशा का संचार करता है। स्वाधीनता प्राप्ति से पूर्व साहित्य और समाज में जब यथास्थितिवाद की स्थिति बनी हुई थी, तब प्रेमचंद इसे चुनौती देते हुए प्रतीत होते हैं। सामाजिक कुरीतियों, महाजनी-षोषण, औपनिवेषिक दमन, मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी का दोगलापन आदि को चुनौती देता हुआ किसान-मजदूर, आम जनों को स्वाधीनता प्राप्ति के केन्द्र में स्थापित करता है। इसीलिए आज भी हम प्रेमचंद के साहित्य के पास अपनी समस्याओं और चिंताओं के साथ जाते हैं।
प्रो. रामबक्ष ने कहा कि प्रेमचंद का साहित्य निष्चित रूप से किसानों को केन्द्र में रखकर चलता है परन्तु वह किसानों को संबोधित नहीं है। प्रेमचंद का साहित्य मध्यवर्ग को संबोधित करने वाला साहित्य है जो बुद्धिजीवी वर्ग को किसान चेतना से लैस करता है। प्रेमचंद की स्पष्ठ समझ थी कि किसान के बचने और बनने से ही देष बचेगा और बनेगा। इसीलिए वह किसानों के पक्ष में पूरे राष्ट्र निर्माण को खड़ा करते हैं। प्रो. रामबक्ष ने आगे कहा कि जहाँ साम्यवादी दृष्टि किसान से मजदूर होने की प्रक्रिया को क्रांति के लिए महत्त्वपूर्ण मानती है, वहीं प्रेमचंद किसान के बने रहने में राष्ट्र की भलाई देखते हैं। प्रेमचंद किसानों के लिए रैयतवारी व्यवस्था को इस्तमरारी व्यवस्था से श्रेष्ठ मानते थे क्योंकि इसमें जमींदारों के शोषण से किसान बना रहता है। प्रेमाश्रम में उन्होंने जमींदाहीन गाँव को श्रेष्ठ बताया भी है।
प्रो. रामबक्ष ने आगे कहा कि प्रेमचंद इस ऐतिहासिक समझ वाले अपने समय के एकमात्र रचनाकार हैं जिन्होंने यह कहा कि जमींदार वर्ग की हस्ती मिट जाने वाली है। पात्रों का आगे चलकर कैसा विकास होगा, वे यह भलीभाँति जानते थे। इसी कारण उनके पात्रों के क्रमश: विकास और चित्रण को गौर से देखा जाना चाहिए। यह भी देखा जाना चाहिए कि वे कौनसे पात्र को रखते हैं और किस पात्र को समाप्त कर देते हैं। वे बताते हैं कि गोदान में मि. तंखा की स्थिति को गौर से समझा जाना चाहिए। सामंतवादी व्यवस्था के पूँजीवादी व्यवस्था में परिवर्तन के बावजूद मि. तंखा की स्थिति में कोई अंतर नहीं आता। वह आज के ब्यूरोक्रेट्स का प्रतिनिधित्व करने वाला पात्र है। प्रेमचंद जितनी शिद्दत के साथ अपने समय और परिस्थितियों को भी जान रहे थे। आज के समय में उनका साहित्य इसीलिए विचारणीय बना हुआ है। प्रेमचंद पात्रों को उनकी पूरी मानवीय गरिमा में चित्रित करने वाले रचनाकार हैं। प्रेमचंद व्यापक जीवनानुभवों वाले रचनाकार हैं।
प्रो. रामबक्ष ने अपने व्याख्यान का अंत करते हुए प्रेमचंद की एक सीमा की ओर इशारा करते हुए कहा कि वे आज भी अपढ़ और गरीब लोगों के रचनाकार नहीं बन पाये हैं। इस पर गंभीरता से विचार करने का दायित्व हमारा है।
कार्यक्रम का संचालन गंगासहाय मीणा ने किया और धन्यवाद ज्ञापन डा. ओमप्रकाश सिंह ने किया। विद्यार्थियों की भागीदारी उत्साहजनक थी। आफताब, धवल, रामानंद, आलोक, संदीप, योगेश, राजीव आदि ने अपनी जिज्ञासाएँ सामने रखीं।
प्रो. रामबक्ष ने आगे कहा कि प्रेमचंद को पढ़ते हुए हम उनके समय की पूरी परंपरा को पढ़ते हैं। उस समय के समाज, संस्कृति, लोक-व्यवहार आदि सबकुछ उसमें समाहित होता है। परन्तु आज प्रेमचंद के अध्ययन की मूल समस्या है कि हम प्रेमचंद के पाठ तक आग्रह-मुक्त होकर नहीं पहुँच पाते। प्रेमचंद के समय के लोगों ने उनको जिस प्रकार से पढ़ा-समझा था, आज हम प्रेमचंद के विभिन्न आलोचकों, जीवनीकारों की वजह से उसी प्रकार से नहीं पढ़-समझ पाते। उनके द्वारा स्थापित विचार इस सहज पाठ में बाधा उत्पन्न करते हैं। प्रो. रामबक्ष ने आगे बताया कि आज का समय यथा स्थितिवाद का समय प्रतीत होता है। आज समाज में परिवर्तन की संभावना बहुत क्षीण प्रतीत होती है। ऐसे में प्रेमचंद का लेखन एक आशा का संचार करता है। स्वाधीनता प्राप्ति से पूर्व साहित्य और समाज में जब यथास्थितिवाद की स्थिति बनी हुई थी, तब प्रेमचंद इसे चुनौती देते हुए प्रतीत होते हैं। सामाजिक कुरीतियों, महाजनी-षोषण, औपनिवेषिक दमन, मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी का दोगलापन आदि को चुनौती देता हुआ किसान-मजदूर, आम जनों को स्वाधीनता प्राप्ति के केन्द्र में स्थापित करता है। इसीलिए आज भी हम प्रेमचंद के साहित्य के पास अपनी समस्याओं और चिंताओं के साथ जाते हैं।
प्रो. रामबक्ष ने कहा कि प्रेमचंद का साहित्य निष्चित रूप से किसानों को केन्द्र में रखकर चलता है परन्तु वह किसानों को संबोधित नहीं है। प्रेमचंद का साहित्य मध्यवर्ग को संबोधित करने वाला साहित्य है जो बुद्धिजीवी वर्ग को किसान चेतना से लैस करता है। प्रेमचंद की स्पष्ठ समझ थी कि किसान के बचने और बनने से ही देष बचेगा और बनेगा। इसीलिए वह किसानों के पक्ष में पूरे राष्ट्र निर्माण को खड़ा करते हैं। प्रो. रामबक्ष ने आगे कहा कि जहाँ साम्यवादी दृष्टि किसान से मजदूर होने की प्रक्रिया को क्रांति के लिए महत्त्वपूर्ण मानती है, वहीं प्रेमचंद किसान के बने रहने में राष्ट्र की भलाई देखते हैं। प्रेमचंद किसानों के लिए रैयतवारी व्यवस्था को इस्तमरारी व्यवस्था से श्रेष्ठ मानते थे क्योंकि इसमें जमींदारों के शोषण से किसान बना रहता है। प्रेमाश्रम में उन्होंने जमींदाहीन गाँव को श्रेष्ठ बताया भी है।
प्रो. रामबक्ष ने आगे कहा कि प्रेमचंद इस ऐतिहासिक समझ वाले अपने समय के एकमात्र रचनाकार हैं जिन्होंने यह कहा कि जमींदार वर्ग की हस्ती मिट जाने वाली है। पात्रों का आगे चलकर कैसा विकास होगा, वे यह भलीभाँति जानते थे। इसी कारण उनके पात्रों के क्रमश: विकास और चित्रण को गौर से देखा जाना चाहिए। यह भी देखा जाना चाहिए कि वे कौनसे पात्र को रखते हैं और किस पात्र को समाप्त कर देते हैं। वे बताते हैं कि गोदान में मि. तंखा की स्थिति को गौर से समझा जाना चाहिए। सामंतवादी व्यवस्था के पूँजीवादी व्यवस्था में परिवर्तन के बावजूद मि. तंखा की स्थिति में कोई अंतर नहीं आता। वह आज के ब्यूरोक्रेट्स का प्रतिनिधित्व करने वाला पात्र है। प्रेमचंद जितनी शिद्दत के साथ अपने समय और परिस्थितियों को भी जान रहे थे। आज के समय में उनका साहित्य इसीलिए विचारणीय बना हुआ है। प्रेमचंद पात्रों को उनकी पूरी मानवीय गरिमा में चित्रित करने वाले रचनाकार हैं। प्रेमचंद व्यापक जीवनानुभवों वाले रचनाकार हैं।
प्रो. रामबक्ष ने अपने व्याख्यान का अंत करते हुए प्रेमचंद की एक सीमा की ओर इशारा करते हुए कहा कि वे आज भी अपढ़ और गरीब लोगों के रचनाकार नहीं बन पाये हैं। इस पर गंभीरता से विचार करने का दायित्व हमारा है।
कार्यक्रम का संचालन गंगासहाय मीणा ने किया और धन्यवाद ज्ञापन डा. ओमप्रकाश सिंह ने किया। विद्यार्थियों की भागीदारी उत्साहजनक थी। आफताब, धवल, रामानंद, आलोक, संदीप, योगेश, राजीव आदि ने अपनी जिज्ञासाएँ सामने रखीं।